✍️ Blog Drafting (Layout ) 👉 ब्लॉग को आकर्षक और आसान बनाने के लिए इसमें ये पॉइंट शामिल करें: भूमिका (Introduction) संविधान क्यों ज़रूरी है? संशोधन (Amendment) की ज़रूरत क्यों पड़ती है? संविधान संशोधन का महत्व संविधान को लचीला और प्रासंगिक बनाए रखने में भूमिका। बदलते समय और समाज के अनुसार ज़रूरी बदलाव। प्रमुख संशोधन (Amendments List + सरल व्याख्या) कालानुक्रमिक क्रम में (जैसे 1st, 7th, 31st...) हर संशोधन का साल, विषय और प्रभाव । आसान उदाहरण ताकि आम आदमी भी समझ सके। उदाहरण आधारित व्याख्या जैसे 61वां संशोधन: “अब 18 साल का कोई भी युवा वोट डाल सकता है।” 42वां संशोधन: “भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता वाला देश घोषित किया गया।” आज के दौर में प्रासंगिकता क्यों इन संशोधनों को जानना ज़रूरी है (UPSC, जनरल नॉलेज, नागरिक जागरूकता)। निष्कर्ष (Conclusion) संविधान को "जीवित दस्तावेज़" कहे जाने का कारण। बदलते भारत में संशोधनों की भूमिका। 📝 Blog Post प्रमुख संविधान संशोधन : सरल भाषा में समझिए भारत का संविधान दुन...
किसी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक ढांचा होता है। जिसके अन्तर्गत उस देश की जनता पर शासन चालाया जाता है। यह उस देश की विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है। उनकी शक्तियों की व्याख्या करता है। उनके दायित्वो का सीमांकन करता है। और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ सम्बन्धों का विनियमन करता है।
सविधान किसी भी देश का वह सर्वोच्च कानून (Supreme Law] है, जिसमें देश के शासन संचालन की मूलभूत रुपरेखा नागरिकों के अधिकार व कर्तव्य सरकार की शक्तियाँ और प्रशासनिक ढांचा निर्धारित होता है। सरल शब्दों में यह एक मार्गदर्शक दस्तावेज है जो बताता है कि देश कैसे चलेगा सत्ता का बटवारा कैसे होगा और नागरिको के साथ कैसा व्यवहार किया जायेगा।
लोकतंत्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है। जनता ही स्वंय अपने ऊपर शासन करती है। किंतु प्रशासन की बढ़ती हुई जटिलताओं तथा राष्ट्र राज्यों के बढ़ते हुये आकार के कारण प्रत्यक्ष लोक- तन्त्र अब सम्भव नहीं रहा। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया और उसी समय से भारत एक पूर्ण गणराज्य बना। इसमें प्रस्तावना मूल अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल कर्तव्य, संघीय संरचना स्वतन्त्र न्यायपालिक और संसदीय प्रणाली जैसी विशेषता शामिल हैं। संघीय राज्य व्यवस्था में संविधान अन्य बातों के साथ- साथ एक ओर परिसंघीय या संघ स्तर पर और दूसरी और राज्यों या इकाइयों के स्तर पर राज्यों के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों का निरुपण, परिसीमन और वितरण करता है।
किसी देश के संविधान को इसकी ऐसी आधार विधि भी कहा जाता है जो उसकी राज्य व्यवस्था के मूल सिंद्धान्त विहित करती है और जिसकी कसौटी पर राज्य की अन्य सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्य को उनकी विधिमान्यता तथा वैधता के लिये कसा जाता है। प्रत्येक सविधान उनके संस्थापकों एवं निर्माण निर्माताओं के आदर्श, सपनो तथा राज्यो का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है। संविधान की एक जड़ दस्तावेज मात्र मान लेना ठीक नहीं होगा क्योंकि संविधान केवल वही नहीं है जो संविधान के मूलपाठ में लिखित है।
[1] एकता और अखंडता बनाये रखना : ⇒
स्वतंत्रता के समय भारत में सैकड़ों रियासतें अलग अलग भाषायें धर्म और संस्कृतियां थी। एक मजबूत सविधान जो इन्हें एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया।-
उदाहराणर्थ: भारतीय संविधान में संघीय संरचना (Union of States ] बनाई गई। जिसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकार स्पष्ट रूप से बाटे गये।
[2.] लोकतांत्रिक शासन की स्थापना :⇒
ब्रिटिश शासन में जनता को सीमित मतदान अधिकार थे। संविधान ने सार्वभौम वयस्क मताधिकार 18 वर्ष से ऊपर हर नागरिक को वोट का अधिकार देकर लोकतंत्र को मजबूत किया।
उदाहरण:⇒ संसद और विधानसभाओं के चुनाव सीधे जनता द्वारा करवाने का प्रावधान।
[३] नागरिक अधिकारों की सुरक्षा : ⇒
औपनिवेश शासन में नागरिको के मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं थे। संविधान ने सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार दिये जैसे-⇒ समानता का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार।
उदाहरण:⇒ अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) - कानून के सामने सभी बराबर।
[4] सामाजिक न्याय और समान अवसर: ⇒
भारत में जाति, लिंग और धर्म के आधार पर भेदभाव व्यापक था। संविधान ने ऐसे भेदभाव को समाप्त करने के लिये विशेष प्रावधान किये।
उदाहरण: अनुच्छेद 17-अस्पृश्यता का अन्त ।
[5] स्वतन्त्र न्यायपालिका और कानून का राज :⇒
संविधान ने न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से अलग रखा ताकि न्याय निष्पक्ष और स्वतंत्र हो सके।
उदाहरण: सुप्रीम कोर्ट और Hight court की स्थापना जो सरकार के गलत फैसलों को भी रद्द कर सकती है।
भारतीय संविधान केवल कानूनी दस्तावेज नहीं बल्कि देश की आत्मा है। यह हमें बताता है कि हम किस प्रकार एक लोकतांत्रिक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं। स्वतंत्रता के बाद यदि संविधान नहीं होता तो भारत में राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक विभाजन बढ़ सकता था।
भारत में लोकतांतिक शासन की स्थापना क्यों आवश्यक थी?
लोकतंत्र वह शासन प्रणाली जिसमें सत्ता का वास्तविक स्रोत जनता होती है। इसमें प्रत्येक नागरिक को अपने प्रतिनिधियों को चुनने और शासन के निर्णयों में अप्रत्यक्ष रुप से भाग लेने का अधिकार मिलता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के लिये लोकतांत्रिक शासन अपनाना केवल एक राजनीतिक विकल्प नहीं था, बल्कि देश की एकता, अखंडता और प्रगति के लिये अनिवार्य आवश्यकता ।
सविधान के स्त्रोत:⇒
भारत के संविधान स्त्रोत देशी भी है और विदेशी भी है। संविधान निर्माताओं ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि वे एकदम स्वतंत्र या नये संविधान का लेखन नहीं कर रहे हैं। उन्होंने जानबूझकर यह निर्णय किया था कि अतीत की उपेक्षा न करके पहले से स्थापित ढांचे तथा अनुभव के आधार पर ही संविधान की खड़ा किया जाये। भारत के संविधान का समन्वित विकास हुआ। आधुनिक विद्यानमण्डलों का सूत्रपात 1920 के अन्तिम दशक तक हो गया था वास्तव में संविधान के कुछ उप- बन्धों स्त्रोत तो भारत में ईस्ट इन्डिया कम्पनी तथा अंग्रेजी काल के शैशव काल में ही खोजे गये थे। राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों के अन्तर्गत ग्राम पंचायतों के संगठन का उल्लेख स्पष्ट रूप से प्राचीन भारतीय स्वशासी संस्थानों से प्रेरित होकर किया गया है। 73 वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों ने उन्हें जब और अधिक सार्थक तथा महत्वपूर्ण बना दिया है। कतिपय मूल अधिकारों की मांग सबसे पहले 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन में की गयी थी । भारत के राज्य संघ विधेयक में जिसे राष्ट्रीय सम्मेलन ने 1925 में अन्तिम रुप दिया था, विधि के समक्ष सामनता, अभिव्यक्ति, सभा करने और धर्म पालन की स्वतंत्रता जैसे अधिकारों की एक विशिष्ट घोषणा सम्मिलित थी। 1927 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें मूल अधिकारों की मांग को दोहराया गया था । सर्वदलीय सम्मेलन द्वारा 1920 में नियुक्त मोतीलाल नेहरू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में घोषणा की थी कि भारत की जनता का सर्वोपरि लक्ष्य न्याय सीमा के अधीन मूल मानव अधिकार प्राप्त करना है। यहां यह उल्लेखनीय है कि नेहरु कमेटी की रिपोर्ट में जो उन्नीस मूल अधिकार शामिल किये गये थे उनमें से दस को भारत के सविधान में बिना किसी परिवर्तन के शामिल कर लिया गया है। 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पारित किये गये प्रस्ताव में न केवल मूल अधिकारों का बल्कि मूल कर्तव्यों का भी विशिष्ट रूप से उल्लेख किया गया है । 1931 के प्रस्ताव में उल्लेखित अनेक सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों को संविधान के निर्देशक तत्वों में समाविष्ट कर लिया गया था। मूल संविधान में मूल कर्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था किन्तु बाद में 1976 में संविधान (बयालीसवां) संशोधन अधिनियम द्वारा इस विषय पर एक नया अध्याय संविधान मे जोड़ दिया गया था।
संविधान में संसद के प्रति उत्तरदायी संसदीय शासन प्रणाली अल्पसंख्यकों के लिये रक्षोपायों और संघीय राज्य व्यवस्था की जो व्याख्या की गयी है। उसके मूल स्त्रोत भी 1928 की नेहरु कमेटी से मिलते हैं। अंततः कहा जा सकता है कि संविधान का लगभग 75 प्रतिशत अंश भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है। उसमें बदली हुई परिस्थितियों के अनुकूल कुछ आवश्यक संशोधन मात्र किये गये थे। देशी स्रोतों के अलावा संविधान निर्माताओं के पास और अनेक विदेशी संविधानों के नमूने थे। निर्देशक तत्वों की सकल्पना आयरलैण्ड के संविधान से ली गयी थी। विधायिका के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों वाली संसदीय प्रणाली अंग्रेजों से आयी। और राष्ट्रपति में संघ की कार्यपालिका शक्ति तथा संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश निहित करना और उपराष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति बनाने के उपबन्ध अमेरिकी संविधान पर आधारित हैं। कहा जा सकता है कि अमेरिकी संविधान में सम्मिलित अधिकार पत्र भी हमारे मूल अधिकारों के लिये प्रेरणास्त्रोत है। कनाडा के संविधान ने अन्य बातों के साथ-साथ संघीय ढांचे और संघ तथा राज्यों के सम्बन्धी एवं संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण से सम्बन्धित उपबन्धों को प्रभावित किया। सप्तम अनुसूची में समवर्ती अनुसूची व्यापार वाणिज्य तथा समागम और संसदीय विशेषाधिकारों से सम्बन्धित उपबन्ध अन्य बातों के साथ- साथ जर्मन राज्य संविधान द्वारा प्रभावित हुए थे। न्यायिक आदेशों तथा संसदीय विशेषाधिकारों के विवाद से सम्बन्धित उपबन्धों की परिधि तथा उनके विस्तार को समझने के लिये अभी भी ब्रिटिश संविधान का सहारा लेना पड़ता है।
संविधान के निर्वाचन का उद्देश्य संविधान निर्माताओं की मंशा को समझना होता है। किन्तु इसे मूलपाठ में प्रयुक्त वास्तविक शब्दों से समझा जाना चाहिये। यदि किसी संवैधानिक उपबन्ध की भाषा स्पष्ट तथा असंदिग्ध है तो संविधान की भावना या संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान सभा में व्यक्त किये गये विचार जैसी बातें निवर्चन के लिये वेयमाने है। किन्तु यदि भाषा की अस्पष्टता के कारण उसके एक से अधिक अर्थ लगाये जा सकते हैं तो इन पर स्पष्टीकरण से विचार किया जा सकता है। (मेनन बनाम बबई राज्य, ए आई आर 1952 एस सी 128, गोपालन बनाम मद्रास राज्य ए आई आर 1950 एस सी 27) अनिवार्य है कि संविधान की उसके प्रत्येक भाग को उचित महत्व देते हुये समग्र रुप से पढ़ा जाये। जहां दो उपबन्ध परस्पर विरोधी प्रतीत हो वहां समरस संरचना सिद्धांत के अन्तर्गत उनका यह अर्थ स्वीकार कर लेना चाहिये जो दोनों उपबन्धों को प्रभावी बनाता हो तथा उसके सुप्रवाही तथा समरस प्रवर्तन को सुनिश्चित करता हो।
[1] जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना :⇒ स्वतंत्रता से पहले भारत के लोग ब्रिटिश शासन के अधीन थे, जहां शासन के निर्णय कुछ सीमित अधिकारियों और ब्रिटिश संसद के हाथों में थे। लोकतंत्र के माध्यम से प्रत्येक नागरिक को अपने मताधिकार के जरिये शासन में भाग लेने का अवसर मिला।
उदाहरण: 1951-52 मे हुये पहले आम चुनावों में हर वयस्क नागरिक को वोट डालने का अधिकार मिला। जिससे जनता की आवाज सीधे संसद तक पहुंची।
[2.] व्यक्तिगत स्वर्तनता और अधिकारों की गाष्टरी:⇒ औपनिवेशिक काल में लोगों के मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं थे। लोकतांत्रिक शासन ने संविधान के माध्यम से इन अधिकारों की कानूनी सुरक्षा दी।
उदाहरण: ⇒ अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 24 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार ।
[3] समानता और सामाजिक न्याय:⇒
भारत एक बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुभाषी देश है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ने सभी नागरिकों को कानून की नजर में समान दर्जा दिया है और भेदभाव समाप्त करने का प्रयास किया।
उदाहरण: अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत
आरक्षण नीति⇒ सामाजिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़े वर्गो को समान अवसर देना।
[५] शक्ति का विकेन्द्रीकरण : ⇒ लोकतंत्र में सत्ता केवल केन्द्र में केंद्रित नहीं रहती बल्कि राज्यों और स्थानीय निकायों तक वितरित होती है। इससे हर क्षेत्र की जरूरतों के अनुसार नीतियां बनती हैं।
उदाहरण: 73 वां और 74 वां संविधान संशोधन पंचायतों और नगरपालिकाओं को अधिकार देना।
[5] शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन: लोकतंत्र में सत्ता. परिवर्तन चुनावों के माध्यम से शातिपूर्वक होता है, जिससे राजनीतिक स्थिरता बनी रहती है और हिंसक टकराव से बचा जा सकता है।
उदाहरण:⇒1977 में आम चुनावों के बाद आपातकाल के बावजूद शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तांतरण ।
भारत में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना आवश्यक थी क्योंकि यह केवल शासन की प्रणाली नहीं बल्कि एक ऐसा ढांचा है जो नागरिकों को स्वतंत्रता समानता और न्याय प्रदान करता है। यह जनता को केवल शासित होने का नहीं बल्कि शासन का हिस्सा बनने का अवसर देता है। यदि स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र न अपनाया जाता तो देश में राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक विभाजन और तानाशाही की अंशका बढ़ जाती है। लोकतंत्र वह शासन प्रणाली है, जिसमें जनता ही सर्वोच्च होती है और सत्ता का वास्तविक स्त्रोत नागरिक होते हैं। इसमें हर व्यक्ति को अपनी पसंद के प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार होता है- जो जनता की ओर से शासन चलाते है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के लिये लोकतांत्रिक शासन केवल एक राजनीतिक विकल्प नहीं बल्कि देश की एकता, सामाजिक न्याय और विकास के लिये अनिवार्य था।
[1] जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना: ⇒
औपनिवेशिक शासन में भारत की जनता का शासन में योगदान बहुत सीमित था। फैसले ब्रिटिश संसद और गिने-चुने अधिकारियों द्वारा लिये जाते थे। लोकतंत्र ने प्रत्येक नागरिक को अपने मताधिकार के जरिये शासन में अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का अवसर दिया है ।
उदाहरण: 1951-52 में हुये पहले आम चुनावी में लाखों नागरिकों ने पहली बार मतदान कर अपने प्रतिनिधि चुने।
[2] व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की गारंटी :⇒
ब्रिटिश काल में नागरिक अधिकार सुरक्षित नहीं थे। लोकतांत्रिक शासन ने संविधान के माध्यम से इन अधिकारों को कानूनी सुरक्षा दी।
उदाहरण:⇒
अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति, सभा और संगठन की स्वतंत्रता । अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार ।
[3.] समानता और सामाजिक न्यायः⇒
भारत की विविधता - जाति, धर्म भाषा को देखते हुये एक ऐसी व्यवस्था जरुरी थी जो सभी को समान अधिकार दे लोकतान्त्रिक शासन ने समानता और भेद-भाव निषेध को मूल सिद्धांत बनाया।
उदाहरण - अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत
आरक्षण नीति - सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछडे वर्गों के लिये अवसर।
[4] शक्ति का विकेन्द्रीकरण : लोकतंत्र में सत्ता केवल केन्द्र में केन्द्रित नहीं रहती, बल्कि राज्यों और स्थानीय निकायों तक वितरित होती है। इससे हर क्षेत्र की जरूरतों के अनुसार नीतियां बनती हैं।
उदाहरण: 73 वां और 74 वां संविधान संशोधन पंचायतों और नगरपालिकाओं को अधिकार देना।
[5] शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन : लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता का हस्तांतरण चुनावों के जरिये शांतिपूर्वक होता है। इससे राजनीतिक स्थिरता और जनविश्वास बना रहता है।
उदाहरण: 1977 के चुनाव में आपातकाल के बाद सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तांतरण।
लोकतांत्रिक शासन अपनाने में संविधान सभा की भूमिका:⇒ भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही 9 दिसम्बर 1946 की संविधान सभा का पहला सत्र हुआ। इसका उद्देश्य था ऐसा संविधान बनाना जो न केवल शासन का रुपरेखा तय करे बल्कि जनता को अधिकार, समानता और न्याय भी प्रदान करे।
प्रमुख कार्य: [:] ⇒
संविधान का प्रारूप तैयार करना:⇒
विभिन्न समितियों ने मिलकर एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो भारतीय परिस्थिरियों और विविधता के अनुकूल हो।
[२] लोकतांत्रिक मूल्यों को शामिल करना : सार्वभौम वयस्क मताधिकार, स्वतंत्र चुनाव आयोग और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे प्रावधान जोडे गये।
[3] जनभावनाओं का सम्मान : → संविधान में लम्बी बहसे और चर्चा हुई, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि संविधान जनता की इच्छाओं के अनुरूप हो।
डॉ० भीमराव अम्बेडकर के विचार और योगदान :⇒
डॉ. भीमराव अम्बेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक व्यवस्था नहीं बल्कि सामाजिक जीवन का हिस्सा माना । उनके अनुसार लोकतंत्र का मतलब है समान अवसर समान अधिकार समान सम्मान अम्बेडकर ने संविधान में मौलिक अधिकार सामाजिक न्याय, और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा जैसे प्रावधान जोडने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि यदि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं जोड़ा गया, तो लोक- तंत्र की सफलता अधूरी रहेगी। भारत में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना केवल शासन प्रणाली में बदलाव नहीं बल्कि नागरिकों को समानता स्वतंत्रता और न्याय देने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था। संविधान सभा और डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व ने सुनिश्चित किया कि भारत का लोकतंत्र न केवल कागजों पर बल्कि व्यवहार में भी जीवंत और सशक्त रहे। आज भी भारत का लोकतंत्र इसकी विविधता और एकता का सबसे मजबूत आधार है। भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐतिहासिक और जटिल कार्य था। संविधान सभा ने 29 अगस्त 1947 की ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया जिसका मुख्य कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना और उसे कानूनी तार्किक तथा व्यवहारिक रुप देना। इस समिति का अध्यक्ष [ Chairman डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर को चुना गया । यह निर्णय मात्र एक पदस्थापना नहीं थी बल्कि उनकी विधिक क्षमता दूरदर्शिता और सामाजिक समझ का परिणाम था।
[1] कानूनी ज्ञान और विशेषज्ञता : ⇒
डॉ. अम्बेडकर एक उच्चकोटि के विधिवेत्ता (Jurist) थे। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और संवैधानिक कानून का गहन अध्ययन किया था।
उदाहरण: संविधान निर्माण के दौरान वे विभिन्न देशों के संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करके भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल प्रावधान तैयार करते थे।
2. सामाजिक न्याय की गहरी समझ :⇒
भारत में जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता गहरी जडे जमाये हुये थी। अम्बेडकर स्वंय इस अन्याय के शिकार हुये थे। इसलिये वे जानते थे कि संविधान में ऐसे प्रावधान होने चाहिये जो सभी को समान अधिकार दें।
उदाहरण : अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत - का समावेश जिससे जातिगत भेदभाव को कानूनी रूप से समाप्त किया गया।
- (3.) बहुमुखी दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक सोच : अम्बेडकर न केवल कानून के जानकर ही, बल्कि अर्थशास्त्र राजनीति और समाजशास्त्र के भी गहरे विद्वान थे। वे मानते हो कि लोकतंत्र तभी सफल होगा जब उसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय का सन्तुलन हो।
उदाहरण : मौलिक अधिकार [ fundamental Rights] और राज्य के नीति निर्देशक तत्व (Directive Principles) में संतुलन बनाना।
[4.] स्पष्ट और तार्किक अभिव्यक्ति क्षमता:⇒
संविधान सभा में अम्बेडकर ने जटिल कानूनी मसलों को सरल भाषा में समझाकर समर्थन प्राप्त किया। उनकी तार्किक प्रस्तुति और तथ्य आधारित तर्क क्षमता ने उन्हें इस पद लिये उपयुक्त बनाया।
उदाहरण: मौलिक अधिकारों और आपातकालीन प्रावधानों पर बहस में उनका संतुलित दृष्टिकोण।
[5] राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति और सम्मान :⇒
अम्बेडकर का जीवन संघर्ष, शिक्षा और सामाजिक सुधार कार्य उन्हें विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक धड़ों के बीच एक सम्मानित व्यक्तित्व बनाता था । उनकी नियुक्ति यह संदेश भी थी कि भारत का संविधान सामाजिक न्याय और समानता के मूल्यों पर आधारित होगा।
डॉ. अम्बेडकर के प्रमुख योगदान बतौर चेयरमैन : ⇒
1. मौलिक अधिकारों का समावेश :⇒
नागरिकों की स्वतन्त्रता और समानता की गारंटी।
२. समान नागरिक संहिता का विचार सभी नागरिकों के लिये समाज कानून ।
७. संघीय संरचना: केन्द्र और राज्यों के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन ।
4. अल्पसंख्यकों और पिछडे वर्गों की सुरक्षा : आरक्षण और प्रतिनिधित्व का प्रावधान ।
5. स्वतंत्र न्यायपालिका: कानून के शासन (Rule of law] की स्थापना।
डॉ० भीमराव अंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनाने का निर्णय संविधान सभा का दृश्दर्शी कदम था। उनकी विधिक विशेषता । सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण और लोकतांत्रिक मूल्यों की गहरी समझ ने भारत को एक ऐसा संविधान दिया जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का आधार है। अम्बेडकर ने न केवल संविधान लिखा बल्कि उसमें भारत की आत्मा और भविष्य की दिशा भी निर्धारित की।
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