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असुरक्षित ऋण क्या होते हैं? भारतीय बैंकिंग संकट, अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और RBI के समाधान की एक विस्तृत विवेचना करो।

Drafting और Structuring the Blog Post Title: "असुरक्षित ऋण: भारतीय बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, और RBI की भूमिका" Structure: परिचय असुरक्षित ऋण का मतलब और यह क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में असुरक्षित ऋणों का वर्तमान परिदृश्य। असुरक्षित ऋणों के बढ़ने के कारण आसान कर्ज नीति। उधारकर्ताओं की क्रेडिट प्रोफाइल का सही मूल्यांकन न होना। आर्थिक मंदी और बाहरी कारक। बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव वित्तीय स्थिरता को खतरा। बैंकों की लाभप्रदता में गिरावट। अन्य उधारकर्ताओं को कर्ज मिलने में कठिनाई। व्यापक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आर्थिक विकास में बाधा। निवेश में कमी। रोजगार और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव। भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका और समाधान सख्त नियामक नीतियां। उधार देने के मानकों को सुधारना। डूबत ऋण प्रबंधन (NPA) के लिए विशेष उपाय। डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग। उदाहरण और केस स्टडी भारतीय बैंकिंग संकट 2015-2020। YES बैंक और IL&FS के मामले। निष्कर्ष पाठकों के लिए सुझाव और RBI की जिम्मेदारी। B...

Guru Gobind Singh (गुरु गोबिन्द सिंह)

गुरु गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु थे। सिख धर्म की नींव बाबा नानक ने डाली थी। ये तो संत थे। हिंदू मुसलमान सभी धर्म उनके सामने समान थे, इन्हीं का भेदभाव मिटाने के लिए उन्होंने सिख धर्म की स्थापना की। धीरे-धीरे गुरुओं का प्रभाव बढ़ने लगा और उनके शिष्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी। पहले मुसलमान बादशाह उसे भी इनका मेलजोल था किसी भी प्रकार का बैर ना था न तो मुसलमान शासक इनको  सताते थे और ना ही यह उनका किसी प्रकार का विरोध करते थे। इनके चौथे गुरू रामदास को अकबर बादशाह ने कुछ जगह भेट की थी। उसी जगह अमृतसर में सिखों का प्रसिद्ध गुरुद्वारा बना है।


           गुरु गोविंद सिंह का जन्म बिहार के पटना में हुआ था। वह इनके पिता गुरु तेग बहादुर मुगल सम्राट के एक राजपूत सेनापति के साथ गए हुए थे। गुरु तेग बहादुर पटना से लौटे तब एक घटना घटी मुगल शासकों के समय कुछ कश्मीरी ब्राह्मण दुखी थे।ये ब्राह्मण गुरु तेग बहादुर के पास आए और उनसे सहायता की प्रार्थना की। गुरु ने भी उनका पक्ष लिया। इससे दिल्ली का सम्राट औरंगजेब उनसे रूष्ठ हो गया। सन 1674 ईस्वी में औरंगजेब ने गुरु को दिल्ली बुलाया और मृत्युदंड की धमकी दी। गुरु ने शहीद होना स्वीकार किया जहां वे शहीद हुए वहीं गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे शीशगंज का गुरुद्वारा कहते हैं।

           उपयुक्त घटना जिस समय की है उस समय गोविंद सिंह लगभग 10 साल के थे। उसी अवस्था में इन्हें गुरु की गद्दी मिली । उस समय 1 लोग बहुत संगठित रूप में थे। इनकी भक्ति भी बड़ी ठोस थी। धार्मिक भक्ति तो थी ही ये बड़े मर्यादा प्रेमी और वीरता से पूर्ण थे।

             एक बात यह जानने की है कि गुरु नानक ने सिख धर्म का आरंभ किया उस समय उसमें धर्म और समाज सुधार की चर्चा होती थी। लोग भगवान का भजन करते थे। बाबा नानक के बाद सिख धर्म के मानने वालों की संख्या में वृद्धि होने लगी। इनका संपर्क हिंदुओं तथा मुसलमानों दोनों से बढ़ने लगा। संकीर्ण विचार रखने वाले इनके शत्रु होते गए। सिखों ने भी अपनी आत्मरक्षा हेतु अपने आप को संगठित करना आरंभ कर दिया। यहां तक कि दसवें गुरु गोविंद सिंह के समय सिख लोग बहुत संगठित हो गए। घुड़सवारी करते थे तलवार चलाते थे कवायत करते थे और लड़ाई लड़ते थे। इतना ही नहीं कुछ राजकाज भी होने लगा। बाबा नानक तो संत थे। किंतु उनके बाद जब चेलों की संख्या बढ़ने लगी, गुरुओं के पास कुछ जगह जायदाद  भी हो गई, तब गुरु लोग धार्मिक गुरु के साथ-साथ राजा के समान भी हो गए। इनके शिष्य इन्हें भेट देते थे जिन्हें वसूल करने के लिए स्थान स्थान पर कुछ लोग नियुक्त होते थे जिन्हें मसंद कहते हैं थे। इनके एक गुरु थे हरगोविंद। उन्होंने  तो सिक्खों को को पूरा सैनिक बना दिया। वे दरबार करते थे और पूरे सैनिक वेश में आते थे। उनके दरबारी और साथी भी सैनिक वेश में रहते थे। उन्हीं के समय उनके शिष्यों ने उन्हें सच्चे बादशाह कहना आरंभ कर दिया। सच्चे बादशाह के दो अर्थ होते हैं। एक तो यह कि और बादशाह बनावटी हैं आप सच्चे हैं दूसरा यह कि आप धार्मिक बादशाह है जो कि सच्चा बादशाह है। और सब तो सांसारिक बादशाह है।

                  जिस समय गोविंद सिंह गुरु की गद्दी पर बैठे पंजाब में सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। वे अपने गुरु से बहुत प्रेम करते थे उनमें बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति थी और उनके लिए अपनी जान भी देने के लिए तैयार रहते थे। वे बालक गुरु गोविंद सिंह को अंबाले के निकट आनंदपुर नामक स्थान पर ले गए जिसे उनके पिता गुरु तेग बहादुर पहले ही अपनी राजधानी बना चुके थे। गुरु गोविंद सिंह 20 वर्षों तक यहां रहे और उन्होंने हिंदू धर्म शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। इन्होंने स्वयं एक पुस्तक का संकलन और संपादन किया जिसे दसम ग्रंथ कहते हैं। इससे पता चलता है कि यह बहुत अच्छे कवि थे और उन्होंने हिंदू धर्म की पुस्तकों को बड़ी गंभीरता से पढ़ा था। यह इन्होंने इसलिए पढा था कि हम जान जाए कि हिंदू धर्म क्या है भारतीय संस्कृति कितनी बड़ी और कितनी पक्की है। इस पुस्तक से यह पता चलता है कि गुरु नानक की भांति यह एक और मानते थे और एक ही ईश्वर की पूजा उन्होंने बताई है। कहीं किसी धर्म का विरोध इन्होंने नहीं किया।

                 उन्होंने बहुत सी और पुस्तकें भी लिखी जैसे चंडी चरित्र चंडी का वार। मैं बहुत अच्छे कवि थे और आशु कविता करते थे। उपदेश देते देते कविता कहने लगते थे। इससे सुनने वालों पर गहरा प्रभाव पड़ता था। चंडी चरित्र में वीरता का बहुत ही सजीव वर्णन है। यह वीर रस का बहुत सुंदर काव्य है। गोविंद सिंह ने पुराणों की कथाओं को अपनी ललित और ओजपूर्ण भाषा में रखा और सिख धर्म को उन वीरता पूर्ण कथाओं से सजीव किया। अपने शिष्यों को अपनी वाणी में उन्हीं प्राचीन वीरों की कथाएं सुना कर उत्साहित किया और उन में उन कथाओं द्वारा प्राण डाला।

             आनंदपुर में रहकर इन्होंने बहुत तप किया। वे सदा धर्म ग्रंथों को पढ़ते रहे और अपनी आत्मा को बलवान बनाते रहे। संत 1699 इसी में इन्होंने सिख धर्म की उन्नति के लिए अपने विचार प्रकट किए। उन्होंने लोगों में फिर से जान डालने की चेष्टा की निराशा से भरे हुए लोगों को आशा का संदेश दिया। अपना संदेश उन्होंने एक पुस्तक द्वारा लोगों को समझाया। पुस्तक का नाम विचित्र नाटक है। उसमें भगवान गुरु गोविंद सिंह से कह रहे हैं तुम हमारे पुत्र के समान हो नया पंथ चलाओ। लोगों से कहो कि सत्य की राह पर चलें और नासमझी के काम ना करें। उसी पुस्तक में एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि मैंने इस धर्म के प्रचार के लिए जन्म लिया। भगवान ने मुझे इसलिए भेजा है कि सत्य का प्रचार करो। इसी प्रकार के वाक्य भगवान कृष्ण ने गीता में कहे हैं। इसके बाद ही उन्होंने सिखों का पूरा संगठन आरंभ किया और खालसा पंथ चलाया। खालसा का अर्थ शुद्ध होता है।


          इसी समय  की एक मनोरंजक घटना है। यद्यपि गुरु गोविंद सिंह के शिष्य संगठित थे और गुरु जी के लिए उनके मन में बड़ी लगन थी उनके लिए मर मिटने को भी सदा तैयार थे किंतु कुछ ऐसे भी थे जो कायर थे। पहाड़ के कुछ राजाओं का गुरु गोविंद सिंह से युद्ध हुआ जिसमें इनके कितने ही सिपाही लड़ाई के मैदान से भाग गए। इस घटना का गुरु गोविंद सिंह के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपना संगठन मजबूत करने का निश्चय किया। विचित्र नाटक का संदेश सुनाने के बाद उन्होंने काशी से एक पंडित बुलाया और एक महायज्ञ की तैयारी करने लगे।  सामग्री एकत्र की गई। अंत में सब सामग्री का हवन हुआ। 12 हजार मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी थी। गुरु गोविंद सिंह आए उन्होंने कहा आप सब लोग मेरे भक्त इकट्ठे हैं आज खालसा के लिए बलिदान की आवश्यकता है। इस महायज्ञ में बलि देना है और सबसे बड़ा बलिदान मनुष्यों का ही हो सकता है। आप लोगों में से जो बलिदान होने के लिए तैयार हो वह सामने आए। सब लोगों में एकदम सन्नाटा छा गया। किसी का साहस बलि चढ़ाने का नहीं होता था थोड़ी देर के बाद एक व्यक्ति तैयार हुआ । वह सामने आया। उसे गुरु गोविंद सिंह अंदर ले गए। गुरु गोविंद सिंह को तो केवल परीक्षा लेनी थी उन्हें आदमियों का बलिदान नहीं करना था। उस आदमी को उन्होंने अंदर छिपा दिया और हाथ में खड्ग  लिए बाहर आए। वे बोले एक बलि और चाहिए। इस प्रकार पहले से जल्दी दूसरा आदमी तैयार हो गया। उसे भी वह अंदर ले गए और छीपा दिया। बाहर आकर फिर तीसरी बली की मांग की। इस प्रकार  बलि के बहाने पांच आदमी वे भीतर ले गए। इसके बाद उन पांचों को वह बाहर सबके सामने लाएं। लोगों  बड़ा अचंभा हुआ। लोगों ने समझा गुरु के आशीर्वाद से ही यह सब जीवित हो उठे हैं। वह पांच व्यक्ति पंच प्यारे कहलाए। क्योंकि वह मृत्यु का डर छोड़कर अपनी बलि देने को तैयार हो गए थे।


            तब एक बर्तन में जल रखा गया। उसमें बतासे डाले गए और उसे गुरु गोविंद सिंह ने अपने खंडे से चलाया। पांचों व्यक्तियों को उसे पीने को दिया या अमृत कहा गया। गुरु गोविंद सिंह का आदेश हुआ कि जिसे सिख बनना हो पहले अमृत ग्रहण करें और उसके बाद 5 और वस्तुओं का ग्रहण करना आवश्यक बताया गया।(1) केश(2)कडा(3)कंघा (4)कच्छ  (5) कृपाण। यह पांच ककार कह जाते हैं। प्रत्येक सिख के लिए इन पांच वस्तुओं को ग्रहण करना आवश्यक है। हमारे यहां प्राचीन काल से बाल बढ़ाना तपस्या का चिन्ह समझा जाता है गुरु ने भी केस को अनिवार्य बना  दिया। लोहे का कड़ा पहनने का अर्थ है कि हम आज से सुख और आराम को त्यागते हैं। बड़े बाल रखने के कारण कंघा  आवश्यक ही है। कच्च जांघिया के रूप में होता है जिसका अर्थ है सैनिक वेश। कृपाण भी सिखों का सैनिक रूप बताता है।


              गुरु गोविंद सिंह ने यह भी अनुभव किया कि जात पात से देश को बड़ी हानि हो रही है और संगठन में यह बाधक है। इसलिए सिख धर्म में उन्होंने जात पात का भेदभाव नहीं रखा। उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि कीर्ति के लिए कुछ ना करो कट्टरता छोड़ो और अपने गुरु की आज्ञा को ही सबसे बढ़कर मानो। प्रत्येक सिख के नाम में सिंह जोड़ना आवश्यक बना दिया जिससे वे अपने को सिंह के समान अनुभव करें।

          इन सब का परिणाम यह हुआ कि सिख लोग बहुत संगठित सैनिक हो गए। इनकी बढ़ती शक्ति को देखकर लोगों को डाह होने लगी। आनंदपुर के आसपास के कुछ राजाओं ने मिलकर इन से लड़ाई लड़ी किंतु वे हार गए। इस युद्ध में तो गुरु गोविंद सिंह विजई हुए किंतु आगे और भी बड़ी विपत्ति खड़ी हो गई बादशाह औरंगजेब उन दिनों दक्षिण में लड़ रहा था। उसने सुना कि सिख लोगों ने सैनिक वेश धारण किया है और बहुत संगठित हो गए हैं। उसे चिंता हुई क्योंकि उसकी राजधानी दिल्ली के निकट किसी बलवान बैरी का होना उचित नहीं था। उसने पश्चिम के सैनिकों को आज्ञा दी कि गोविंद सिंह पर आक्रमण किया जाए। आनंदपुर घिर गया। बड़ी कठिनाई से गोविंद सिंह कुछ साथियों के साथ वहां से भाग निकले। इसके बाद 6 सात साल तक गुरु गोविंद सिंह औरंगजेब से युद्ध करते रहे। इन्हें लड़ाई यों में गुरु गोविंद सिंह के दो लड़के मारे गए तथा दो को सरहिंद के सूबेदार ने दीवार में चुनवा दिया।

             इन सब कठिनाइयों और दुखों पर भी इनका साहस नहीं टूटा। इन्होंने औरंगजेब को एक पत्र लिखा जिसमें और बातों के साथ यह भी लिखा कि कुछ चिंगारियां को बुझाने से क्या लाभ जब मशाल जल रही है। इसका अर्थ यह है कि मैं तो जीवित ही हूं बच्चों को मारने से क्या लाभ हुआ। पत्र में यह भी उन्होंने लिखा कि मैं तो राज नहीं चाहता मैं तो धर्म का प्रचार करता हूं। सिखों के प्रति जो अधिकारियों का बर्ताव है वह ठीक नहीं है। मैं तो उसी से डरता हूं जो राजाओं का राजा है, जिसके सम्मुख आपको भी अपनी करनी का जवाब देना होगा।


             इसके उत्तर में बादशाह औरंगजेब ने उन्हें पकड़ लाने का आदेश दिया। बीच में बादशाह की मृत्यु हो गई। उसके लड़कों में राज्य के लिए लड़ाई हुई। गुरु ने बहादुर शाह का साथ दिया। जो बाद में औरंगजेब का उत्तराधिकारी हुआ। वे सेना के साथ दक्षिण गए। मार्ग में उनके किसी शत्रु ने उन्हें घायल कर दिया। इसके कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।


             जिस समय गुरु गोविंद सिंह की मृत्यु हुई वह केवल 42 वर्ष के थे। जीवन के अंतिम 10-12 वर्षों में जो कुछ उन्होंने किया वह सचमुच सराहनीय है। सबसे बड़ी बात उन्होंने यह की की गुरु आई नहीं स्थापित की। उन्होंने कहा कि मेरे बात कोई गुरु नहीं होगा। ईश्वर की ही आज्ञा माननी चाहिए और बस गुरुओं ने जो बताया है जो ग्रंथ साहब में संग्रह किया हुआ है वही सब के लिए मान्य है।


                गुरु गोविंद सिंह नि:सन्देह  सिखों के महान गुरु थे। उन्होंने भेदभाव मिटाकर खालसा को संगठित किया और सिखों को नई स्फूर्ति एवं प्रेरणा दी। यही कारण है कि वह किसी भी प्रकार की बलि देने में कोई संकोच ना करते थे। दसम ग्रंथ, चंडी चरित्र, विचित्र नाटक सभी बताते हैं कि गुरु गोविंद सिंह धर्म की बातों को लेकर अपने ढंग से प्रचार कर अपने शिष्यों में नया जीवन डालना चाहते थे। थोड़े से जीवन में इन्होंने महान कार्य किया। वे हमारे देश के अमूल्य रत्न थे, जिन्हें हमारा देश कभी नहीं भूल सकता।
           

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