Drafting और Structuring the Blog Post Title: "असुरक्षित ऋण: भारतीय बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, और RBI की भूमिका" Structure: परिचय असुरक्षित ऋण का मतलब और यह क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में असुरक्षित ऋणों का वर्तमान परिदृश्य। असुरक्षित ऋणों के बढ़ने के कारण आसान कर्ज नीति। उधारकर्ताओं की क्रेडिट प्रोफाइल का सही मूल्यांकन न होना। आर्थिक मंदी और बाहरी कारक। बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव वित्तीय स्थिरता को खतरा। बैंकों की लाभप्रदता में गिरावट। अन्य उधारकर्ताओं को कर्ज मिलने में कठिनाई। व्यापक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आर्थिक विकास में बाधा। निवेश में कमी। रोजगार और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव। भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका और समाधान सख्त नियामक नीतियां। उधार देने के मानकों को सुधारना। डूबत ऋण प्रबंधन (NPA) के लिए विशेष उपाय। डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग। उदाहरण और केस स्टडी भारतीय बैंकिंग संकट 2015-2020। YES बैंक और IL&FS के मामले। निष्कर्ष पाठकों के लिए सुझाव और RBI की जिम्मेदारी। B...
15 वी 16वीं 17वीं सदी इतिहास का मध्य युग कहा जाता है। उस युग का इतिहास साहस, वीरता ,त्याग तथा बलिदान से भरा है। मुगलों का राज्य बहुत उन्नत अवस्था को पहुंच गया था। लड़ाइयां बहुत होती थी, किंतु लोग अपने लिए नहीं लड़ते थे, लड़ते थे अपने देश के लिए। ऐसे ही समय, तुलसीदास के मरने के 4 साल पीछे, महाराष्ट्र के निर्माता शिवाजी का जन्म संवत 1684 में हुआ। इनके पिता का नाम शाहजी था जो चित्तौड़ के राणा लक्ष्मण सिंह के कुल में कहे जाते हैं। शिवाजी की माता का नाम जीजाबाई था। 4 साल पहले शाह जी के 1 पुत्र हो चुका था। इसके बाद उनको युद्ध में ही अधिकतर रहना पड़ा। कहा जाता है एक रात को शाह जी ने सपना देखा कि एक साधु चीथडा लपेटे अंग में भभूत पोते सामने खड़ा है। इनके हाथ में एक आम उसने दिया और कहा इसका आधा भाग अपनी पत्नी को खिलाओ और तुम्हारे 1 पुत्र होगा जो शिवजी का अवतार होगा। शाह जी की नींद खुल गई। उन्होंने अपने हाथ में आम पाया। उसका आधा भाग उन्होंने जीजाबाई को दिया। कुछ दिनों के बाद शिवाजी का जन्म हुआ। साधु की बातों का विश्वास करके इन्होंने पुत्र का नाम शिवाजी ही रखा।
शाह जी ने एक दूसरा विवाह भी कर लिया और जीजाबाई पूना के निकट शाह जी की जमीदारी में रहने लगी। जमीदारी का प्रबंध दादाजी कोंडदेव करते थे। जिस समय जीजाबाई यहां आई जमीदारी चौपट हो चुकी थी। किंतु कोणदेव की चतुराई तथा योग्यता से वह फिर पनपी। उन्होंने शिवाजी को घुड़सवारी तथा धनुष बाण चलाने का अभ्यास कराया। उन्होंने तथा शिवाजी की माता ने पुराने ग्रंथों से रामायण तथा महाभारत की कथाएं शिवाजी को सुनाएं। शिवाजी भीम और अर्जुन बनने की कल्पना करने लगे। 18 साल की अवस्था होते-होते शिवाजी निर्भीक, साहसी, श्रमी हो गए। उन्हीं की अभिलाषा हुई कि अपने प्रदेश को बीजापुर के शासन से स्वतंत्र कर लूं।
बस उन्होंने पूना के दक्षिण तोरण के दुर्ग पर आक्रमण किया और उसे ले लिया। वर्षा ऋतु थी, दुर्ग का शासक तथा सेना बाहर चली गई थी। यह अवसर शिवाजी ने उपयुक्त समझा। दुर्ग पर ही उन्होंने विजय नहीं पाई वहां का धन तथा शस्त्र भी ले लिए। दुर्ग के शासक ने बीजापुर के सुल्तान के पास शिकायत भेजी। शिवाजी ने दरबार के अधिकारियों को कुछ दे दिला कर प्रसन्न कर लिया परिणाम स्वरूप दुर्ग के शासक पर डांट पड़ी। वह पदच्युत कर दिया गया शिवाजी दुर्ग के शासक नियुक्त कर दिए गए। इसके पश्चात उसी के निकट एक स्थान पर उन्होंने सुदृढ़ दुर्ग बनाया और उस स्थान का नाम रायगढ़ रखा। सिंह गढ़ तथा पुरंदर के भी दुर्ग इन्हें मिल गए। इस प्रकार इनके हाथ चार दुर्ग आ गए।
किंतु इन दुर्गों के लेने तथा बनवाने में शिवाजी का सब धन लग गया और उनके पास पैसे ना रहा। इन्हीं दिनों बीजापुर के सुल्तान का एक अधिकारी कुछ सैनिकों के साथ बीजापुर का खजाना लेकर जा रहा था। शिवाजी ने उस पर छापा मारा और इस धन से और दुर्गों पर अधिकार जमा लिया। बीजापुर के सुल्तान बहुत क्रोधित हुए और आज्ञा दी कि शिवाजी तुरंत दरबार में उपस्थित हो। शिवाजी ने उत्तर दिया कि जितने दुर्ग तथा स्थान ले लिए हैं मुझे मिल जाए तो मैं उपस्थित हो जाऊंगा। इस बात पर बीजापुर के सुल्तान का पारा बहुत ऊपर चढ़ गया। उन्होंने शिवाजी के पिता को दीवार में चुनवा दिया। केवल मुंह के सामने एक छेद सांस लेने के लिए छोड़ दिया और कहा कि शिवाजी से कह दो कि ठीक रास्ते पर आ जाएं नहीं तो यह छेद भी बंद कर दिया जाएगा। शिवाजी ने मुगल सम्राट से बात की मैं आपकी अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार हूं। शाहजहां उस समय मुगल सम्राट थे। उन्होंने शाह जी को छोड़ देने के लिए पत्र लिखा और शाह जी छोड़ दिए गए।
शिवाजी का साहस बढ़ता गया। जहां जो स्थान मिलता जो संपत्ति मिलती वे ले जाते थे। बीजापुर के सुल्तान जब किसी प्रकार विजय प्राप्त ना कर सके उन्हें अपने अधिकारी तथा सैनिक अफजल खां को शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजा। वह सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ शिवाजी को पकड़ने के लिए आया। अपने साथ में एक पिंजड़ा भी लाया इसमें शिवाजी को बंद कर बीजापुर के दरबार में ले जाने वाला था। इन सब बातों की सूचना इनके जासूसी इनको देते थे।
प्रतापगढ़ के किले के पास दोनों की भेंट की तैयारी हुई। शिवाजी को अफजल खान की नीयत का पता चल गया था। इन्होंने र्वस्त्र के नीचे लोहे का जिरह बख्तरबंद पहना पगड़ी के नीचे लोहे का टोप पहना, बाई आस्तीन में छुरा छुपा लिया और दाहिने हाथ में बाघनख पहन लिया। दो दो साथियों के साथ यह लोग तंबू में मिले। अफजल खान ने देखा मुझे इस समय अवसर मिल गया है बाएं हाथ से उसने झपट कर शिवाजी की गर्दन पकड़ी और दाहिने हाथ से तलवार का प्रहार पेट पर किया किंतु वहां तो लोहे का कवच था। शिवा जी ने अपनी गर्दन छुड़ाने की चेष्टा की किंतु सफलता ना मिली। उन्होंने झट बाएं हाथ का छुरा अफजल खान की पीठ में भोंक दिया और बाघनख उसका पेट फाड़ डाला। अफजल ने सिर पर तलवार की चोट की। लोहे का टोप कट गया और शिवाजी के सिर पर साधारण चोट लगी। अफजल खान के दोनों साथी सहायता के लिए दौड़े किंतु उनकी एक न चली। शिवाजी के सहायकों ने अफजल खान का वध कर दिया। उसी अवसर पर शिवाजी के सैनिकों ने आक्रमण कर दिया और सारी सेना नष्ट कर दी गई।
इस समाचार से बीजापुर के सुल्तान और जल उठा। उसने अनेक प्रयत्न किए शिवाजी पर विजय प्राप्त करने के लिए किंतु वह विफल रहा। इधर शिवाजी विजय पर विजय प्राप्त करते जा रहे थे और अपना राज्य बढा रहे थे। अंत में इनके पिता के प्रयत्न से बीजापुर तथा शिवाजी के बीच संधि हो गई।
अब शिवाजी ने बीजापुर का राज्य छोड़ मुगल साम्राज्य के भीतर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। औरंगजेब ने दक्षिण के राज्यपाल शाइस्ता खां को शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। शिवाजी के सैनिकों ने मुगल सैनिकों का वेश धारण करके शाइस्ता खां के निवास स्थान में प्रवेश किया उनके सैनिकों को पराजित किया। शाइस्ता खान का पुत्र मारा गया और वह भाग गया। भागने से उसके हाथ की उंगलियां कट गई। औरंगजेब उससे बहुत रूष्ट हुआ और इसे दक्षिण से हटा लिया शिवाजी का कार्य चलता रहा। अंत में औरंगजेब ने एक बड़ी सेना भेजी जिसमें जय सिंह भी थे। शिवाजी ने उस समय संधि कर लेना ही उचित समझा और औरंगजेब के दरबार में जाना स्वीकार कर लिया। वहां औरंगजेब ने इनका उचित सम्मान नहीं किया और उन्हें बंदी बना लिया। इन्होंने अस्वस्था का बहाना किया और रोग के निवारण हेतु नित्य मिठाई बाटी जाने लगी। उसी मिठाई के टोकरी में बैठकर एक दिन वह वहां से भाग गए। मथुरा प्रयाग काशी गया होते हुए वह पूना पहुंचे।
सन 1674 ईस्वी में रायगढ़ में इन्होंने राजा की पदवी धारण की और बड़े धूमधाम से यह समारोह संपन्न हुआ। काशी से मागा भट्ट गए थे जिन्होंने इनका यगोपवित कराया। इसके पश्चात इन्होंने सुदूर दक्षिण तक अपने राज्य का विस्तार किया।
शिवाजी आजकल की दृष्टि से पढ़े लिखे ना थे। पुस्तकों का ज्ञान उन्हें नहीं था। किसी पाठशाला में उन्होंने अध्ययन नहीं किया था। किंतु उन्हें ज्ञान पर्याप्त था। पंडितों तथा विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे। हिंदी के विख्यात कवि भूषण इन के दरबार में रहते थे। भूषण घर से रुष्ट होकर भाग गए थे। शिवाजी की ख्याति सुनकर दक्षिण चले गए। शिवाजी के एक मंदिर में ठहरे थे। वही शिवाजी से इन की भेंट हुई। शिवाजी ने इनसे परिचय पूछा। उन्होंने कहा मैं कवि हूं। महाराज शिवाजी के दरबार में जा रहा हूं। शिवाजी ने कहा वहां क्या सुनाएंगे कुछ मैं भी सुनूं। भूषण एक के बाद एक छंद सुनाने लगे। 52 कविता सुनाने के पश्चात चुप हो गए। शिवाजी ने कहा और सुनाइए। भूषण ने कहा सब तुम ही को सुनाएं अब नहीं सुनाऊंगा। शिवाजी ने तब अपना परिचय दिया और कहा जाता है कि 52छन्दों पर 52 लाख रुपए 52 गांव और 52 हाथी पुरस्कार में दिए।
शिवाजी हिंदू धर्म के अनुयाई थे किंतु दूसरे धर्मों के प्रति अति उदार थे। यह गुण उस युग के विरले लोगों में पाया जाता है। विजय के अवसर पर कही कुरान की पोथी मिल जाती थी तो बड़े सम्मान से उसे रखते थे और अपने किसी मुसलमान कर्मचारी अथवा मौलवी को दे देते थे। उनकी कठोर आज्ञा थी कि कोई सैनिक मस्जिद को हानि ना पहुंचाएं महिलाओं का आदर किया जाए। उनकी सेना में मुसलमान कर्मचारी भी थे। वे अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र कराना चाहते थे किंतु किसी धर्म या जाति से उनको किसी प्रकार का द्वेष नहीं था।
शिवाजी बहुत अच्छे सैनिक और सेनानी थे। जिस प्रकार वह लडाइयों का संचालन करते थे और उनकी योजना बनाते थे उसकी प्रशंसा यूरोप के युद्ध विद्या के पंडितों ने की है।
शिवाजी को सदा उत्साहित करने वाले तथा उनके विचारों को ऊंचा बनाने वाले उनके गुरु थे रामदास। जिस प्रकार शैशव में उनकी माता ने तथा लडकेपन में दादाजी कोणदेव ने शिक्षा से उन्हें उत्साहित किया उसी प्रकार यौवन में समर्थ गुरु रामदास ने उनके हृदय में अपनी ऊंची शिक्षा से देश प्रेम के भावों से भर दिया।
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