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इजरायल ईरान war और भारत ।

इजराइल ने बीते दिन ईरान पर 200 इजरायली फाइटर जेट्स से ईरान के 4 न्यूक्लियर और 2 मिलिट्री ठिकानों पर हमला किये। जिनमें करीब 100 से ज्यादा की मारे जाने की खबरे आ रही है। जिनमें ईरान के 6 परमाणु वैज्ञानिक और टॉप 4  मिलिट्री कमांडर समेत 20 सैन्य अफसर हैं।                    इजराइल और ईरान के बीच दशकों से चले आ रहे तनाव ने सैन्य टकराव का रूप ले लिया है - जैसे कि इजरायल ने सीधे ईरान पर हमला कर दिया है तो इसके परिणाम न केवल पश्चिम एशिया बल्कि पूरी दुनिया पर व्यापक असर डाल सकते हैं। यह हमला क्षेत्रीय संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय संकट में बदल सकता है। इस post में हम जानेगे  कि इस तरह के हमले से वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था, कूटनीति, सुरक्षा और अंतराष्ट्रीय संगठनों पर क्या प्रभाव पडेगा और दुनिया का झुकाव किस ओर हो सकता है।  [1. ]अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव:   सैन्य गुटों का पुनर्गठन : इजराइल द्वारा ईरान पर हमले के कारण वैश्विक स्तर पर गुटबंदी तेज हो गयी है। अमेरिका, यूरोपीय देश और कुछ अरब राष्ट्र जैसे सऊदी अरब इजर...

स्तूप क्या होते है? इनका निर्माण कैसे होता है?

जब से बौद्ध धर्म पृथ्वी पर आया तभी से स्तूप बनने शुरू हुए। स्तूप संस्कृत का शब्द है। यह प्रतीक है ज्ञानोदय का यह सिर का ऊपर का हिस्सा है। जिसका अर्थ होता है शिखर तक पहुंचना। यह पवित्र गतिविधि है जहां बनाया जाता है प्रतीकात्मक और सम्मानजनक। स्तूप बहुत शक्तिशाली हैं जो हमारी नकारात्मक सोच को शुद्ध करते हैं। जहां कहीं भी स्तूप बनाए जाते हैं वह स्थान बहुत ही शक्तिशाली, उपचारात्मक और प्रेरित करने वाला बन जाता है।


कब और कैसे बने स्तूप?

स्तूपों का निर्माण होना कैसे शुरू हुआ इस विषय में एक कथा प्रचलित है। जब भगवान गौतम बुद्ध अंतिम क्षणों में रोग सैया पर पड़े थे तब उनके पास बैठे दुखी  भिक्षुगण यह जानना चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार कैसे करें? तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा,' आनंद जैसे चक्रवर्ती राजा का होता है' इसलिए उनके शिष्यों ने जब भगवान बुध का देहांत हुआ उनके दाह संस्कार के बाद उनकी अस्थियों के ऊपर मिट्टी और पाषाणों का स्तूपाकार ढेर निर्मित कर दिया। इससे यह पता चलता है कि स्तूप मृत्यु संबंधित थे तथा यह किसी के अंतिम संस्कार स्थल या मृतक की अस्थियों के ऊपर बनाए जाते थे। इस प्रकार बौद्ध स्थापत्य कला की शुरुआत स्तूप से हुई। उस समय महान बोधिसत्व की हस्तियों पर बनाई गई समाधिया स्तूप कहलाने लगी। यद्यपि प्रारंभ में अस्थियों  के ऊपर ही स्तूप बनाए जाते थे। किंतु बाद में आगे चलकर बौद्ध धर्म के स्मारक स्थानों पर भी स्तूप बनाए जाने लगे।

         भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों के प्रश्न को लेकर विवाद हुआ। इस वजह से उनकी अस्थियों को राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप, पावा, राम ग्राम, वैदद्धीप, कुशीनगर इन आठ स्थानों पर रखवा कर स्तूप बनवा दिए गए थे। कहा जाता है कि अशोक ने उन 8 स्थानों से अस्तिया निकाल कर उन्हें 84000 स्तूपों में सुरक्षित कराया था। इस बात का संशय हो सकता है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अशोक ने भारी संस्था में स्तूपों का निर्माण कराया था। अशोक के बाद भी स्तूपों का निर्माण हुआ था। जिनमें सांची और सारनाथ के स्तूप अधिक महत्वपूर्ण है।


स्तूपों का निर्माण कैसे होता था?

सबसे पहले स्तूप मिट्टी और कच्ची मिट्टी से बनाए जाते थे। इनका निर्माण शमशान या मुख्य मार्गों के चौराहे पर होता था। इन स्तूपों में महापुरुषों की भस्म, केश, नश और अस्तियां एक पिटारी में इकट्ठा करके रखी जाती थी। यह स्तूप वृत्ताकार या वर्गाकार बनाए जाते थे। इनके चारों तरफ कहीं पर पत्थर की बेष्टनिया है और कहीं नहीं है। सबसे पुराना स्तूप नेपाल की सीमा पर पिग्रहवा में है। जो कहा जाता है कि अशोक से भी पहले और बुद्ध  के कुछ समय बाद का है। धरती पर इसका व्यास 116 फुट है तथा ऊंचाई केवल 22 फुट है। 35 सेंटीमीटर 25 सेंटीमीटर 8 सेंटीमीटर मोटी ईटों का बना है। प्राचीन स्तूप भीतर से खोखले या ठोस कच्ची ईंटों से बने हैं और पत्थर की रेलिंग से घिरे हैं। मिट्टी की ईंटों से बने होने पर अक्सर उन्हें पक्की जुड़ाई से ऊपर से ढक देते हैं। सांची और सारनाथ के स्तूप इसी प्रकार से बने हैं। स्तूपो के नीचे आधार को मेधि कहा जाता है। मेधि की भूमि रेलिंग व स्तूप के बीच प्रदक्षिणा पथ का काम देती है जो गुम्बजा आकार होता है उसके ऊपर हर्मिका होती है जिससे ऊपर निकली हुई धातुष्टि नीचे एंड को भेदती हुई गहरी चली जाती है।  यह यष्टि ऊपर के छत्र या छत्रों का दंड बन जाती है चोटी पर बने कलश को वर्ष स्थल कहते हैं। यह स्तूप का साधारण रूप है। वैसे उसका आकार बाद में बदलता गया है।


धर्म राजिक स्तूप

वाराणसी में सारनाथ के पास धर्मराजिक स्तूप है। माना जाता है कि अशोक ने ही इसको निर्मित कराया था।  छठीं से 12 वीं सदी तक हम स्तूप को 6 बार आच्छादित (पत्थर की शिलाओं  का आवरण) किया गया था। यह स्तूप पाषाण के ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है तथा इसके ऊपर का भाग इंटों का बना है।

बौद्ध गया के स्तूप

गया में महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए इस स्थान को बोधगया कहते हैं। बुद्ध  की मृत्यु के बाद यहां भी वेदिका निर्मित हुई थी। राजा पूर्व वर्मा ने इसका विस्तार करवाया था। इसकी की परिधि में अनेक छोटे-छोटे स्तूप बने हुए हैं। यह स्तूप मरहुत  के स्तूप से कला के क्षेत्र में उच्चतर समझा जाता है।


सांची का स्तूप

सांची का स्तूप बौद्ध स्थापत्य कला में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने 300 फीट ऊंची पहाड़ी पर इसका निर्माण करवाया था। एक सदी बारिश में परिवर्तन हुआ। यह विदिशा से 6 मील की दूरी पर स्थित है। इसकी ऊंचाई 54 फीट तथा अर्ध गोलाकार है इस स्तूप में मौर्यकालीन ईंटों का प्रयोग किया गया है। जो 16 इंच लंबी 10 इंच चौड़ी तथा 3 इंच मोटी है। सांची की पहाड़ी के पत्थर में भी इन में प्रयुक्त किए गए हैं ईटों से चिनाई करने के बाद उन पर 8 इंच मोटा चूने का लेप किया गया है। इनकी वेदिका का व्यास 120 फीट तथा स्तुप का व्यास 100 फीट है। वेदिका की ऊंचाई 11 फीट है तथा वेदिका में चौकोर खंभे हैं। खंभों को जोड़ने में चूने व गारे का प्रयोग किया गया है। खंभों को ऊंचाई 9 फीट तथा इन खंभों को 2 फीट चौड़ी  फलकों मे जोड़ा गया है। खंभे व फलक कलापूर्ण कृतियों से अलंकृत है। तोरण द्वारों  पर यदा यक्षणियों और  महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र उत्कीर्ण है। सांची के तोरणों पर सात मानुषी बुद्ध के अवशेषों के लिए संघर्ष भगवान के विभिन्न प्रदर्शन तथा षंडदंत वेसंतर महाकवि आदि जातकों का चित्रण भी मिलता है स्तूप के चारों तरफ पत्थर की रेलिंग है तथा प्रदक्षिणा पथ भी है। स्तूप के सबसे ऊपरी भाग पर दंडमय में छत्र है। रेलिंग पर बुद्ध जीवन से संबंधित अनेक कथाएं उत्कीर्ण है। पशु पक्षी देव यक्ष गंधर्व मानव आदि भी पाषाण में उत्कीर्ण है। कश्यप का धर्म परिवर्तन और राजा शुद्धोधन के दीक्षित होने की घटनाओं को भी प्रस्तर पर उत्कीड़न किया गया है। मूल स्तूप के चारों तरफ पहाड़ी पर अन्य कई स्तूप बने हुए हैं यह स्तूप भी कलात्मक है। अलंकरण की दृष्टि से सांची के स्तूपों को तोरण द्वारों की कला सर्वोत्तम मानी जाती है।


दक्षिण भारत के स्तूप

दक्षिण भारत में भी अनेक स्तूपों का निर्माण हुआ है। इनमें अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं अमरावती का स्तूप वर्तमान आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के दक्षिणी तट पर बना हुआ है। यह स्तूप उत्तरी भारत के स्तूपों से भिन्न है। इस का चबूतरा ईटों से बनाया गया है जबकि उत्तर भारत के चबूतरे ठोस मिट्टी से बने हुए हैं। अमरावती का स्तूप आंध्र सातवाहन शासकों की कीर्ति का प्रतीक है। स्तूप संगमरमर की शिला पट्टी गांव से ढका हुआ तथा इन पट्टिकाओं पर बुद्ध के जीवन उसकी उपासना के अनेक दृश्य मानव आकृतियां पशु अलंकरण तोरण आदि अंकित किए गए हैं। भगवान बुद्ध के जन्म के प्रतीक हाथ को जिस रूप में यहां उत्कीर्ण किया गया है। वैसा और कहीं उपलब्ध नहीं है। हाथी के आकृति के सिरे पर वृक्ष की पूजा दिखाई गई है। अमरावती के स्तूप का अलंकरण सर्वोपरि है क्योंकि इसके अलंकरण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका अलंकरण वर्षों तक निरंतर चलता रहा। किंतु नागार्जुनकोंडा के स्तूप में अमरावती जैसी सजीवता नहीं है।


बौद्ध धर्मावलंबी कनिष्क के स्तूप

बौद्ध धर्मावलंबी कनिष्क ने भी अनेक स्तूप बनवाएं। कनिष्क द्वारा अपनी राजधानी पुरुष पुर( पेशावर) में बनवाया हुआ स्तूप अपनी भव्यता ऊंचाई कला के लिए प्रसिद्ध था। इस स्तूप की ऊंचाई 638 फुट आधार 5 मंजिलों का 150 इसकी परिधि 1250 गज तथा इसकी रेलिंग डेढ़ सौ फुट है। सबसे ऊपर स्वर्ण ताम्र के लगे 25 चक्र थे। उसके पास मूर्तियों से अलंकृत एक 1 मीटर और दूसरा डेढ़ मीटर ऊंचा स्तूप था। वही दो मूर्तियां भी थी जिनमें से एक में बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे पालथी लगाकर बैठे दिखाए गए हैं।


कनिष्क के बाद के स्तूप

कनिष्क के बाद दूसरी से लेकर पांचवी शताब्दी तक उत्तर पश्चिमी भारत में अनेक स्तूप बनाए गए। इन स्तूपों की विशेषता यह थी कि गंधार शैली के बने हैं।इस शैली के स्तूपों की विशेषता यह थी कि वह कृतिम ऊचे चबूतरो पर बनाए जाते थे। और उनकी ऊंचाई बहुत ज्यादा होती थी। उनको ऊंचा दिखाने के लिए उन पर कृतिम छत्र लगा दिया जाता था। इसका प्रदक्षिणा पथ वर्गाकार होता था। इन स्तूपो पर बुद्ध मूर्तियों प्रचुर मात्रा में अंकित होती थी। इन स्तूपों के निकट महाविहार होते थे। ऐसा विशाल स्तूपों के अवशेष रावलपिंडी( पाकिस्तान) तक्षशिला मणिक्य माला बहलोल, जमालगढी तथा 4 साध्य( जिला पेशावर पाकिस्तान)मे जो उपलब्ध हुए हैं। पांचवी से छठी शताब्दी में सिंधु प्रदेश में गंधार शैली के कई स्तूप बनाए गए। मीरपुर में एक ऐसा स्तूप प्राप्त हुआ है जिसके आधार पर तीन कोठारिया है। जिनमें बुद्ध की प्रतिमाएं प्रतिस्थापित हैं।

गुप्त काल के स्तूप

गुप्त काल में भी सर्वत्र स्तूप बने। अधिकतर वे गांधार प्रदेश मथुरा आदि में थे। मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग में उनमें से तो आज भी विद्यमान है। एक सारनाथ में दूसरा पटना के निकट राजगीर में। स्तंभों की यह परंपरा पिछले काल तक लगातार चलती रही। उनमें से कुछ सांची के स्तूपों( जिनमें बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र आदि मोदगलायन  की अस्तियां संचीत है) की भांति अस्ति रखने के लिए खोखले बने थे। कुछ केवल स्मारक के रूप में ठोस बाद में  पूजा के लिए भी उनका निर्माण होने लगा। तीर्थ स्थान पर जाते ही बौद्ध अपनी निजी 2,2 ,4-4,  10 फुट  निजी स्तूप खड़े कर लेते थे। 10वीं 11वीं शताब्दी में मिट्टी छूने की ठीकरे स्तूप की आकृति लिए हुए प्रस्तुत हुए हैं।

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