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असुरक्षित ऋण क्या होते हैं? भारतीय बैंकिंग संकट, अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और RBI के समाधान की एक विस्तृत विवेचना करो।

Drafting और Structuring the Blog Post Title: "असुरक्षित ऋण: भारतीय बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, और RBI की भूमिका" Structure: परिचय असुरक्षित ऋण का मतलब और यह क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में असुरक्षित ऋणों का वर्तमान परिदृश्य। असुरक्षित ऋणों के बढ़ने के कारण आसान कर्ज नीति। उधारकर्ताओं की क्रेडिट प्रोफाइल का सही मूल्यांकन न होना। आर्थिक मंदी और बाहरी कारक। बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव वित्तीय स्थिरता को खतरा। बैंकों की लाभप्रदता में गिरावट। अन्य उधारकर्ताओं को कर्ज मिलने में कठिनाई। व्यापक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आर्थिक विकास में बाधा। निवेश में कमी। रोजगार और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव। भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका और समाधान सख्त नियामक नीतियां। उधार देने के मानकों को सुधारना। डूबत ऋण प्रबंधन (NPA) के लिए विशेष उपाय। डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग। उदाहरण और केस स्टडी भारतीय बैंकिंग संकट 2015-2020। YES बैंक और IL&FS के मामले। निष्कर्ष पाठकों के लिए सुझाव और RBI की जिम्मेदारी। B...

भारत में वित्तीय बैंकिंग संस्थान( financial banking institution in India)

 वित्त का  अर्थ उत्पादन कार्य के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक पूंजी से है। सामान्यतः  पूंजी का अर्थ इस संदर्भ में पैसे से होता है। उत्पादन के कार्य में दिन-प्रतिदिन अनेक खर्चों को पूरा करने के लिए पैसे की आवश्यकता होती है ।इन आवश्यकता ओं को जो संस्थाएं पूरा करती है वह वित्तीय संस्थाएं कहलाती है।


वित्तीयन(Financing)  का अर्थ किसी भी उद्देश्य के लिए पैसे का  प्रबंध करने से होता है। वित्त प्राप्त करने की कीमत को ब्याज की दर कहते हैं। वित्तीयन की आवश्यकता उत्पादन कार्य शुरू करते वक्त होती है। निश्चित रूप से पैसे का कुछ भाग दो व्यक्ति अपने स्वयं के साधनों से एकत्रित कर सकता है और शेष के लिए उसे अन्य  श्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। इस प्रकार उधार लेकर अनेक स्रोतों से पैसे जुटाने की प्रक्रिया वित्तीयन कहलाती है।

वित्त का वर्गीकरण (Classification of Finance)

समय व उद्देश्य के संदर्भ में वित्त के निम्नलिखित प्रकार है

अल्पावधि वित्त : सामान्यतः यह ऋण अल्प समय अर्थात 15 महीने से कम समय के लिए होता है। यह दिन प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उपयोगी होता है।

मध्यावधि वित्त सामान्यतः इसकी अवधि 15 महीने से लेकर 5 वर्ष तक की अवधि की मुख्यता यह संपत्ति मशीनों के क्रय, जमीनों में सुधार हेतु होती है।


दीर्घावधि वित्त इस प्रकार के ऋण स्थाई परिसंपत्तियों के निर्माण हेतु लिए जाते हैं और इनकी अवधि सामान्य रूप से 5 वर्ष से अधिक होती है।


वित्त के स्रोत( sources of finance)

वित्त के सभी स्रोतों को हम दो वर्गों में बांट सकते हैं

(1) संस्थागत स्रोत

(2) गैर संस्थागत स्रोत


संस्थागत स्रोत( institutional source)

ऋण देने के लिए बने संगठन और प्रतिष्ठान वित्त के संस्थागत स्रोत कहलाते हैं। वित्त की व्यवस्था करना इनका विशेष उद्देश्य होता है ।इन्हें वित्तीय संस्थाएं भी कहते हैं ।बैंक, सहकारी समितियां, बीमा कंपनियां, भारतीय यूनियन ट्रस्ट ,राज्य वित्त निगम, विकास बैंक आदि इसके कुछ उदाहरण है।


गैर संस्थागत स्रोत( non institutional sources):- व्यक्तियों यानी मित्रों और रिश्तेदारों साहूकारों, महाजनों से लिए गए ऋण  के गैर संस्थागत स्रोत कहलाते हैं।


कृषि क्षेत्र से संबंधित वित्त के संस्थागत स्रोत

कृषि व ग्रामीण क्षेत्र में ऋण देने वाली संस्थागत एजेंसियों की स्थापना भारत सरकार व रिजर्व बैंक के सम्मिलित प्रयासों से हुई ।इस प्रकार की संस्थाओं के कुछ उदाहरण है सहकारी बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक एवं नाबार्ड आदि।


वाणिज्यिक बैंक( commercial bank):

वर्ष 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र को दी गई ऋण की मात्रा में पर्याप्त बढ़ोतरी हुई और ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं की संख्या में भी अभूतपूर्व विस्तार हुआ।

                      वाणिज्यिक बैंक द्वारा दिए गए ऋण विभिन्न अवधि में ज्यादातर अल्पकालीन प्रवृत्ति के होते हैं ।इसके अतिरिक्त ट्यूबवेल, ट्रैक्टर, कृषि मशीनरी, पशु ,हल आदि खरीदने भूमि सुधार आदि के लिए मध्यकालीन ऋण भी प्रदान करते हैं यह ऋण बहुत ही महत्वपूर्ण है।


सहकारी ऋण समिति( cooperative credit committee):

सहकारी समिति से अभिप्राय केंद्रीय अधिनियम के अधीन अथवा किसी राज्य में फिलहाल लागू सहकारी समितियों से संबंधित किसी कानून के अधीन पंजीकृत किए जाने के लिए मानी गई अथवा पंजीकृत समिति से है।


       इस समिति का मुख्य कार्य कृषि संबंधित तथा छोटे-छोटे खुद के रोजगार के लिए ग्रामीणों को ऋण उपलब्ध कराना है साथ ही शहर में उपस्थित गरीबों को भी रोजगार के लिए यह समिति ऋण उपलब्ध कराती है।


भूमि विकास बैंक( land Development Bank):

भूमि विकास बैंक की स्थापना किसानों की दीर्घकालीन ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की गई है ।इस प्रकार का प्रथम बैंक वर्ष 1929 में मद्रास में स्थापित किया गया था।


            ये जायदाद  को जमानत पर रखकर ऋण देते हैं। ये द्वि स्तरीय बैंक हैं। शीर्ष स्तर पर केंद्रीय भूमि विकास बैंक( central Land Development Bank) होता है जो कि प्रत्येक राज्य में एक होता है तथा उसके नीचे प्राथमिक भूमि विकास बैंक( primary land Development Bank) होते हैं।


क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक( regional ruler bank):

  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना 2 अक्टूबर 1975 को की गयी । एक साथ पाँच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किए गए ।बाद में देश के अन्य भागों में इसका विस्तार किया गया ।यह बैंक सिक्किम वह गोवा के अलावा सभी राज्यों में कार्यरत हैं।

  •              दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं को प्रदान करने हेतु क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना की गई।

  •              सितंबर 2005 तक 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत थे और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के संबंध में गठित किए गए कार्यकारी दल( केलकर समिति) की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए अप्रैल 1987 के बाद कोई नया बैंक नहीं खोला गया।

  •          क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पूंजी में केंद्र व राज्य सरकार का हिस्सा 50% व 15% क्रमसा होता है बाकी 35% हिस्सा प्रवर्तक बैंक का होता है।

  •            क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सशक्त बनाने के विचार से इन्हें वर्ष 2005 में चरणबद्ध तरीके से इन बैंकों को एक दूसरे में मिलाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई।


लीड बैंक योजना( lead Bank scheme):

इस योजना का प्रारंभ वर्ष 1969 में ग्रामीण क्षेत्र को और अधिक ऋण सुविधाएं प्रदान कराने के लिए किया गया ।इस योजना के अंतर्गत वाणिज्यिक बैंक की किसी अर्ध शहरी या ग्रामीण शाखा को गांव के समूह के किसी विशेष क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। यह बैंक क्षेत्र की आवश्यकताओं की ओर ध्यान देता है।    

               इस तरह अलग-अलग क्षेत्र अलग-अलग बैंकों को सौंप दिए गए हैं ताकि वे अपने-अपने क्षेत्र में ध्यान दे सकें ।इस अवधारणा के पीछे विचार यह है कि इस तरह किसान भी केवल अपने क्षेत्र की अग्रणी बैंक के पास ही जाएंगे।


क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक संबंधी प्रमुख समितियां:

दाॅते वाला समिति( वर्ष 1977) ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के संगठन और कार्यों में संशोधन करके इनकी संरचना को और सुदृढ़ करने का सुझाव दिया।

क्रेफिकार्ड समिति( वर्ष 1979) इस समिति ने ग्रामीण साख को सुदृढ़  करने में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के महत्व को रेखांकित किया। समिति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बहुउद्देशीय एजेंसी के रुप में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की भूमिका बढ़ाई जाए।

खुसरो समिति( वर्ष 1989) इस समिति ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली को महत्व दिया। बैंकिंग सेवाओं को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने दूरदराज क्षेत्र में ले जाने का उल्लेखनीय कार्य किया।

केलकर समिति( वर्ष 2004) इस समिति ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के उद्देश्यों की पुनः समीक्षा की तथा अपनी सिफारिश में प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के पूंजी आधार को बढ़ाने का सुझाव दिया।


नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट( national bank for Agriculture and Rural Development, NABARD):

  • यह बैंक 12 जुलाई 1982 को अस्तित्व में आया ।इसकी स्थापना शिव रमन सिंह समिति की संस्तुति पर की गई।

  •         इसकी स्थापना कृषि लघु उद्योग कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग हस्तशिल्प और गांव में अन्य आर्थिक गतिविधियों के संवर्धन हेतु ऋण उपलब्ध कराने के लिए की गई थी।

  •          वर्ष 1995- 96 नाबार्ड ग्रामीण ढांचागत विकास कोष( RIDF) के अंतर्गत ग्रामीण ढांचागत परियोजनाओं जैसे:PMGSY के अंतर्गत निर्माण योजना आदि के लिए राज्य सरकारों को  वित्त उपलब्ध करा रहा है।


ग्रामीण अवसंरचना विकास निधि( ruler infrastructure development fund):

ग्रामीण अवसंरचना विकास निधि की स्थापना का प्रस्ताव ग्रामीण अवसंरचना क्षेत्र में हो रहे कम निवेश को देखते हुए वर्ष 1995-96 में 2000 करोड़ रुपए की राशि द्वारा किया गया था ।इस निधि के लिए ग्रामीण भारतीय अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा योगदान किया गया ताकि वह कृषि उधार संबंधी अपने शुद्ध बैंक उधार में 18% के लक्ष्य में कमी को पूरा कर सकें।

      इस निधि की स्थापना का मुख्य उद्देश्य राज्य सरकारों को उन मदों में लाभ पहुंचाना है जो राशि के अभाव में रुके पड़े हैं । इन मदों में ग्रामीण सड़क, पुल ,वाटर शेड विकास, बाढ़ संरक्षण, शीत भंडारण आदि क्षेत्र शामिल हैं।


प्राथमिक क्षेत्रक उधार नीति( primary sector lending policy,PSL)

सुभेद्य क्षेत्रों को पर्याप्त संस्थानिक ऋण प्रदान किया जाना सुनिश्चित करने की आवश्यकता के मद्देनजर भारतीय रिजर्व बैंक ने आदेश दिया है कि बैंक अपने अग्रिम ओं का कम से कम 40% हिस्सा प्राथमिक क्षेत्रों को उधार दे।

       प्राथमिक क्षेत्रों में मोटे तौर पर कृषि लघु उद्योगों अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों निर्यात को शिक्षा तथा स्वयं सहायता समूह आदि के लिए शामिल है।

               भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्राथमिकता क्षेत्रक उधार(  पी एस एल) संबंधी संशोधित दिशानिर्देशों में 20 या अधिक शाखाओं वाले विदेशी बैंकों तथा वाणिज्यिक बैंकों को आदेश दिया गया है कि वे अपने समायोजित निवल बैंक ऋण (एएनबीपी) या तुलन पत्रेत्तर देनदारियों(ओबीई) की समतुल्य राशि के 40% हिस्से का ऋण  जो भी उच्चतर है प्राथमिक क्षेत्र को आवंटित करें।

            इसके अंतर्गत एएनबीपी या ओबीई के ऋण समतुल्य राशि के 18% तथा 10% का ऋण क्रम सा कृषि तथा अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों को उधार देने के लिए आदेशित किए जाएंगे।

     

किसान क्रेडिट कार्ड योजना(KCC):

यह योजना वर्ष 1998 -99 में प्रारंभ की गई, जिसका उद्देश्य किसानों को पर्याप्त व यथासंभव सरल तरीके से ऋण सहायता मुहैया कराना है। यह योजना अब दीर्घ अवधि सरकारी ऋण संरचना के उधारकर्ताओं के लिए भी लागू हो गई है। किसान क्रेडिट कार्ड जारी करने में वाणिज्य बैंक सबसे आगे 45.5% जिसके पश्चात सहकारी बैंकों ने 39.5% तक ग्रामीण बैंकों 30.15%  का हिस्सा है ।नाबार्ड ने इस योजना के कार्य क्षेत्र में विस्तार करते हुए इसमें कृषि व संबद्ध क्षेत्रों हेतु सावधि ऋणों को भी शामिल कर लिया है।

औद्योगिक क्षेत्र से संबंधित वित्त के संस्थागत स्रोत( institutional sources of finance related to the industrial sector):

देश के अंदर उद्योगों के लिए संस्थागत वित्त के निम्नलिखित स्रोत इस प्रकार हैं

(1) लोक निर्गम(शेयर व ऋण  पत्र)

(2)लोक जमाएं 

(3)वाणिज्यिक बैंकों से ऋण 

(4) औद्योगिक बैंक

लोक निर्गम( public issues):

  • आम जनता को किसी विशेष औद्योगिक इकाई में पूंजी लगाने के लिए आमंत्रण देने की प्रक्रिया को लोक निर्गम कहते हैं यह आमंत्रण किसी कानून के अनुसार दिया जाता है और इसके अपने नियम होते हैं जो औद्योगिक इकाई यह आमंत्रण देती है उन्हें पूर्व निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता है और यह आमंत्रण सरकारी विभाग से मंजूरी के बाद ही दिया जा सकता है

  •             लोक निगमन द्वारा वित्त की प्राप्ति शेयर व ऋण पत्र( shares and debentures) जारी करके होती है इन दोनों का मूल्य पूर्व निश्चित होता है शेयर खरीदने वाले व्यक्ति या संस्थाएं कंपनी के स्वामी समझे जाते हैं इस प्रकार एक कंपनी के हजारों लाखों स्वामी यानी शेयर  होल्डर हो सकते हैं

  •            ऋण पत्र खरीदने वाले कंपनी के रेट दाता कहलाते हैं उनका कंपनी के स्वामित्व या कंपनी के प्रबंध से कोई लेना देना नहीं होता उन्हें कंपनी इन ऋण पत्रों को निश्चित दर पर ब्याज अदा करती है

  •             उद्योगों को अधिकतम दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताएं शेयर वार्ड ऋण पत्र जारी करके पूरी हो जाती है इन्हें कोई भी खरीद सकता है जैसे आम लोग कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान बैंक की या फिर कोई और अन्य संस्था अतः इन्हें लोक निर्गम की संज्ञा दी जाती है.

  •             लोग निर्गम में लोग कितनी पूंजी लगाई है आम व्यवसायिक वातावरण और पूंजी बाजार पर लोगों के विश्वास पर निर्भर करता है यदि यह वातावरण अनुकूल    नहीं हो यानी लोगों का विश्वास पूंजी बाजार में नहीं हो तो आम जनता लोग निर्गम में पूंजी नहीं लगाएगी.

लोक जमाए( public deposits):

  • इसमें कंपनियां आम जनता को यह आमंत्रण देती है कि वह उनके पास अपना पैसा जमा कराएं जिस पर उन्हें 1 वर्ष पूर्व निश्चित दर से ब्याज मिलेगा इनकी अवधि प्राया 1 वर्ष से लेकर 5 वर्ष तक होती है

  •           इस प्रकार के जमाव( deposit) के लिए दिशानिर्देश भारतीय रिजर्व बैंक जारी करता है प्राय: प्रतिष्ठित कंपनियों को कम ब्याज दर पर अधिक पूंजी मिलती है क्योंकि लोगों को यह विश्वास होता है कि उनकी रकम नहीं डूबेगी.

  •            आम उद्योगों को इस स्रोत से विशेष वित्त नहीं मिलता केवल कुछ प्रतिष्ठित बड़ी कंपनियां ही इस स्रोत से पूंजी प्राप्त करने में सफल हो पाती हैं


वाणिज्यिक बैंक( commercial banks):

वाणिज्यिक बैंक उद्योगों को अल्पकालीन ऋण देते हैं जो कि उद्योगों की कार्यशील पूंजी की आवश्यकता ओं को ही पूरा करता है बैंक प्रायः दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सीधे रेड नहीं देते ना ही वे इसी अवर ऋण पत्र आदि खरीदते हैं क्योंकि इसमें जोखिम होता है।

औधोगिक बैंक( industrial banks):

उद्योगों के दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता को औद्योगिक बैंक पूरा करते हैं। औधोगिक बैंक ऐसी विशिष्ट संस्थाएं हैं जो उद्योगों को ऋण देने के साथ-साथ उनके विकास में भी सहायता करती है । औद्योगिक बैंक एक विशेष प्रकार की वित्तीय संस्थाएं हैं जो कि सरकार द्वारा स्थापित की गई है ।इनका मुख्य उद्देश्य उद्योगों के दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकताओं को पूरा करना है ।इस संदर्भ में यह बैंक वाणिज्यिक बैंकों के पूरक हैं क्योंकि वाणिज्यिक बैंक उद्योगों की दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं।

विशिष्ट क्षेत्रों हेतु विशिष्ट वित्तीय संस्थाएं( various financial institution for the specified areas):

भारतीय औद्योगिक ऋण व निवेश निगम( industrial credit and Investment Corporation of India,ICICI)

स्थापना वर्ष 1955
  • उद्देश्य व कार्य निजी क्षेत्र के लघु व मध्यम उद्योगों के विकास में सहायता करना।

  •         यह वर्तमान उद्योगों के विस्तार व आधुनिकीकरण में सहायता करता है तथा प्रबंधीय व तकनीकी सहायता संबंधी सलाह देता है।

  •           निजी स्रोतों से लिए एक  ऋण की गारंटी देना शेयर पूंजी में पैसा लगाना तथा शेयर व ऋण पत्रों के निर्गमों  में हामी भरना ।यह विदेशी मुद्रा के रूप में भी ऋणों को मंजूर कर सकता है।

भारतीय औद्योगिक विकास बैंक लिमिटेड( industrial Development Bank of India Limited IDBI)

स्थापना वर्ष 1964 में रिजर्व बैंक के अनुषांगी
  •   बैंक के रूप में वर्ष 1976 में स्वतंत्र भारत सरकार के स्वामित्व में

  • उद्देश व कार्य औद्योगिक उद्यमों को वित्तीय सहायता तथा औद्योगिक विकास के कार्य में लगी संस्थाओं को बढ़ावा देना यह बड़ी और मझोली औद्योगिक इकाइयों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।

  •       अक्टूबर 2004 में इसका निगमीकरण कर इसे वाणिज्य बैंक कंपनी बना दिया गया ।सिडबी  की स्थापना के पश्चात लघु उद्योगों को वित्तीय सहायता से इस को अलग कर दिया गया है।

भारतीय यूनियन ट्रस्ट( unit Trust of India UTI):

स्थापना वर्ष 1964

सार्वजनिक क्षेत्र में अब यह एक निजी क्षेत्र की कंपनी हो गई है.

2001 में यूएस 64 के धराशाई होने के पश्चात इसका विभाजन यूटीआई1 व यूटीआई2 मे किया गया है जिन का परिचालन एस बी आई एल आई सी बी ओ बी व पी एन बी द्वारा किया जा रहा था बाद में इन चारों ने सरकार को पूरा मूल्य झुकाकर यूटीआई म्यूचुअल फंड के प्रबंधन के साथ-साथ इसका स्वामित्व भी हासिल कर लिया 2005 यूटीआई एमएफ में इन चारों की बराबर की हिस्सेदारी है वर्ष 2007 से यूटीआई बैंक का नाम एक्सिस बैंक लिमिटेड हो गया है यह एक निजी क्षेत्र का बैंक है।

आयात निर्यात बैंक( export-import Bank EXIM):

स्थापना वर्ष 1982

उद्देश्य व कार्य देश में विदेशी व्यापार के वित्तपोषण उस की सुविधा प्रदान करने और संवर्धन के लिए इस बैंक की स्थापना की गई है। साथ ही यह उन सभी वित्तीय संस्थाओं के मध्य समन्वय का भी कार्य करता है जो वस्तुओं व सेवाओं के आयात व निर्यात हेतु वित्त  जुटाते हैं। इसका मुख्यालय मुंबई में स्थित है ।इसके कार्यालय  विदेशों में भी स्थित हैं।


राष्ट्रीय आवास बैंक( national housing Bank nhb):

स्थापना वर्ष 1998 भारतीय रिजर्व बैंक की सहायक संस्था के रूप में

उद्देश्य व कार्य:- आवासीय वितरण कराने वाली शीर्ष संस्था है हाउसिंग बैंक की स्थापना रिजर्व बैंक के पूर्ण स्वामित्व वाले सहयोगी के रूप में की गई साथ ही यह देश में आवास वित्त कंपनियों का नियामक व पर्यवेक्षक भी है ग्रामीण आवास कोष नामक एक नया कोशिश में स्थापित किया गया है यह बैंक ब्रांडों व ऋण पत्रों को अपने संसाधन जुटा सकता है।

भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक( small industries Development Bank of India SIDBI):

स्थापना वर्ष 1990 लघु उद्योगों के विकास वित्त एवं संवर्धन के लिए small industries Development Bank of India (SIDBI) की स्थापना एक प्रमुख वित्तीय संस्थान के रूप में की गई थी।

       उद्देश्य व कार्य:

           यह देश में अति लघु लघु और मझोले उद्यमों को सीधे सहायता देने के अतिरिक्त राज्य वित्त निगम वाणिज्यिक बैंकों राज्य औद्योगिक विकास निगम आदि के जरिए वित्त उपलब्ध कराता है। यह पूर्णतः iDBI के सहभागी संस्था है।

        इसका मुख्यालय लखनऊ में है तथा देश भर में इसके 5 क्षेत्रीय कार्यालय यह भारतीय मुद्रा के साथ-साथ विदेशी मुद्रा में ऋण   उपलब्ध कराता है।



औद्योगिक इकाइयों की परिभाषा में परिवर्तन:

सिडबी संशोधन विधेयक वर्ष 2012 में औद्योगिक इकाइयों की परिभाषा को विस्तार दिया गया और पर्यटन संबंधी सेवाओं सड़क विकास मनोरंजन निर्माण व फ्लोरीकल्चर अधिकारियों को भी औद्योगिक इकाइयों का दर्जा दिया गया है जिससे एक निर्धारित राशि तक निवेश वाली संबंधित इकाइयों को SIDBI से सीधे ही ऋण प्राप्त हो सकेगा।



  • देश में सर्वाधिक शहरी सहकारी बैंक महाराष्ट्र राज्य में स्थित है।

  • केंद्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर पर कार्य करती है तथा 1 वर्ष से अधिक और 3 वर्ष तक का ऋण प्रदान करती हैं।

  • भारत में केरल एकमात्र राज्य है जिसके सभी 14 जिलों में प्रत्येक परिवार के पास कम से कम एक बैंक खाता है।

  • भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना तथा नाबार्ड की स्थापना को वित्तीय समावेशन का ही भाग माना जाता है।


गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां( non banking financial companies): निजी क्षेत्र में बहुत सी कंपनियां हैं जो जनता से जमा प्राप्त करती है और व्यवसायिक उपक्रमों को दीर्घकालीन वित्त प्रदान करती हैं इन कंपनियों को गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी कहते हैं।

        ऋण स्वीकृत  करने के सरल तरीके लोचपूर्ण एवं त्वरित सेवा के कारण गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं दीर्घकालीन वित्त के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में प्रकट हुई हैं।


NBFCs  के प्रमुख  कार्य

  • गैर बैंकिंग कंपनियां जनता से जमा स्वीकार करने तथा ऋण प्रदान करने के दो ही कार्य करती हैं अतः इन्हें बैंकिंग कंपनी नहीं माना जाता है ।ये कंपनियां आकर्षक ब्याज देकर जनता से जमा प्राप्त करती है तथा धन एकत्रित करती हैं।

  • इनके द्वारा थोक व्यापारियों फुटकर व्यापारियों व लघु पैमाने के उद्योगों तथा स्वरोजगार में लगे लोगों को ऋण वित्त  पट्टा वित्त तथा किराया क्रय व्यवसाय आदि का कार्य करती हैं।

  • Non banking financial companies प्रायः उन क्षेत्रों के लिए ऋण की व्यवस्था करती है जहां ऋण अंतराल विद्यमान है।

  • ऋण   स्वीकृत  करने के आसान तरीके, जमा पर आकर्षक ब्याज और ग्राहकों की ऋण की आवश्यकता मे लोच एवं समय सीमा ना होने के कारण हमारे देश में गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां वित्त प्रदान करने की महत्वपूर्ण स्रोत बन गई है।


नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनीज की भूमिका:

  • वर्तमान में नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनीज के व्यापारिक लेन-देनों  की संख्या तथा मात्रा दोनों में ही पर्याप्त वृद्धि हुई है।

  • उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं और मोटर कारों के लिए वित्त पोषण करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

  • NBFC के कारोबार में तीव्र वृद्धि ने निवेशकों के हितों की रक्षा करने के लिए प्रभावी नियामक कार्यवाही की आवश्यकता उत्पन्न कर दी है। इसके लिए RBI ने NBFC की गतिविधियों को नियमित करना प्रारंभ कर दिया है।

आरबीआई के एनबीएफसी संबंधी दिशा निर्देश

  • भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निजी क्षेत्र में नए बैंक के प्रवेश संबंधी दिशानिर्देशों में विगत वर्षों में अच्छे रिकॉर्ड वाली एनबीएफसी निम्नलिखित मानदंडों के आधार पर निजी क्षेत्र के बैंक बनाने की अनुमति दी गई है

  • NBfc की तुलना पत्र के अनुसार कम से कम 200 करोड रुपए की निवल संपत्ति होनी चाहिए जिसे 3 वर्षों के भीतर 300 करोड़ रुपए तक बढ़ाया जाना होगा।


  • NBFC कि किसी बड़े औद्योगिक घराने द्वारा प्रमोट किया होना चाहिए अथवा स्थानीय राज्य अथवा केंद्रीय सरकार सहित सरकारी प्राधिकरणों  के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन नहीं होना चाहिए।

  • NBFC को पूर्व वर्ष AAA( अथवा इसके समकक्ष) क्रेडिट रेटिंग प्राप्त होनी चाहिए.

  • NBFC का भारतीय रिजर्व बैंक के विनियमों या निर्देशों के अनुपालन और सार्वजनिक जमाओं की वापसी अदायगी में विगत रिकॉर्ड साफ सुथरा होना चाहिए।

  • NBFC के पास कम से कम 12% की पूंजी पर्याप्तता होनी चाहिए और इनकी निवल एनपीए 5% से अधिक नहीं होना चाहिए.

  • NBFC के पास कम से कम 2500000 रुपए का शुद्ध निजी कोष(net owned fund) होना रिजर्व बैंक ने अनिवार्य किया है।


  • एनबीएफसी द्वारा सार्वजनिक जमाओं (Deposits ) जा सकेगा अभी तक इसके लिए 12.5% की उच्चतम सीमा निर्धारित थी।


वित्तीय समावेशन( financial inclusion):

समावेशी विकास और स्थाई समिति में वित्तीय समावेशन निर्णायक भूमिका निभा रहा है जैसा कि वर्तमान रूप से मान्य और वैश्विक रूप से स्वीकृत किया जा रहा है .जनता के विशाल वर्गों को औपचारिक बाजार तंत्र और वित्त बाजारों में भाग लेने की जरूरत है। वित्तीय समावेशन से वित्तीय बचते भी व्यापक और गहन होंगी तथा इससे उच्चतर आर्थिक विकास होगा।


वित्तीय समावेशन हेतु प्रमुख प्रयास:

  • फुटकर प्रयोजन के लिए नो फ्रिल खाते.

  • सरली कृत केवाईसी( know your customer)

  • ऋण परामर्श सेवा केंद्र सुविधाएं एनजीओ का उपयोग और एस एच जी( स्वयं सहायता समूह) का गठन

  • किसान क्रेडिट कार्ड( kCC)

  • Smart card का विस्तार

        रंगराजन समिति ने भी वित्तीय समावेशन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए प्राथमिकताएं निर्धारित की हाल ही में दो अधिक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण में स्मार्ट कार्ड और मोबाइल फोन बैंकिंग जैसी प्रौद्योगिकी का उपयोग शामिल है .


सहकारी विपणन ( cooperative marketing):-

सहकारी विपणन  का आशय ऐसी व्यवस्था से है जहां formers व उत्पादकों के वर्ग को customers तक अपनी वस्तुओं को पहुंचाने के उद्देश्य हेतु संगठित किया जाता है.

        विपणन  उत्पादन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है उत्पादन की क्रिया संपूर्ण तब तक नहीं होती जब तक उसके विपणन  की व्यवस्था समुचित रूप से नहीं होती है कृषकों को उनकी उपज का उचित मूल्य देकर उन को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के कारण सहकारी विपणन की अवधारणा का जन्म हुआ।


विपणन के उद्देश्य( objective of marketing)

भारत में सहकारी आंदोलन के पीछे दो उद्देश्य थे। प्रथम किसानों को कृषि कार्यों के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध करवाना। दूसरा किसानों को साहूकारों के पंजे से छुड़ाना। कृषकों की सौदा करने की शक्ति को मजबूत करना अनावश्यक मध्यस्थों को हटाना सदस्यों के उपज के लिए उचित मूल्य प्राप्त करना आर्थिक समितियों का वित्तीयन मूल्यों  में स्थिरता लाना वस्तुओं का वर्गीकरण प्रमाणीकरण और यातायात की सुविधा प्रदान करना रहा है वर्तमान समय में सहकारी विपणन  ढांचा निम्न प्रकार है

सहकारी विपणन  तंत्र( cooperative marketing mechanism):

नेफेड(NAFED) इसका पूरा नाम राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन  संघ( national  agricultural Cooperative marketing federation of India Limited)है।नेफेड की स्थापना वर्ष 1974 में कृषि उपजों  के सहकारी विपणन  हेतु की गई।

(2) राज्य सहकारी विपणन  समितियां यह राज्य स्तर पर कार्यशील निकाय है।

(3) केंद्रीय विपणन समितियां इनका कार्य क्षेत्र जिला तथा अंतर जिला व्यापार होता है।

(4) प्राथमिक विपणन  समितियां ये मंडियों अथवा थोक संग्रह के केंद्रों पर कार्य करती हैं।

(5) ट्राइफेड(Trifed) भारत सरकार द्वारा अगस्त 1987 में ट्राइफेड की स्थापना जनजातीय समुदाय का शोषण रोकने व उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं का उचित मूल्य दिलाने हेतु की गई विशेषकर के निजी व्यापारियों के शोषण से छुटकारा दिलाने के लिए इसने अप्रैल 1988 से कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। इसको पेड़ों  तथा वनों के उत्पादों के एकत्रीकरण प्रसंस्करण भंडारण और विकास की प्रमुख एजेंसी भी घोषित किया गया है। यह अनाजों की सरकारी खरीद में सरकारी एजेंट की भूमिका निभाती है।



वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद( financial stability and Development Council fsdc):

अंतर विनियामक सहयोग तथा वित्तीय क्षेत्र विकास मुद्दों का समाधान करती है यह वित्तीय शिक्षा तथा वित्तीय समावेशन पर भी ध्यान देती है वित्तीय स्थिरता बनाए रखने अंतर विनियामक समन्वय को बढ़ाने और वित्तीय क्षेत्र विकास के उत्थान के लिए तंत्र के सुदृढ़ीकरण तथा संस्थानिक करण के उद्देश्य से सरकार ने इसकी स्थापना की थी.


भारत में सबसे बड़ा म्यूच्यूअल फंड यूटीआई है जिसकी स्थापना वर्ष 1964 में की गई तथा वर्ष 1966 में इसने कार्य करना शुरू कर दिया.

भारत में अप्रैल 1993 में केंद्र सरकार द्वारा बीमा क्षेत्र में सुधार देने हेतु मल्होत्रा समिति का गठन किया गया जिस के सुझाव पर आईआरडीए का गठन 19 अप्रैल 2000 में किया गया.

जनश्री बीमा योजना अगस्त 2000 को शुरू की गई इस ने सामाजिक सुरक्षा समूह बीमा योजना और ग्रामीण समूह जीवन बीमा योजना की जगह ली.

विश्व आर्थिक फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार जीवन बीमा घनत्व के मामले में भारत विश्व के देशों में शीर्ष स्थान पर है।



    
    

 

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