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हम उन सम्राटों को भूल सकते हैं जिन्होंने जीवन भर तलवार म्यान में नहीं रखी और पृथ्वी का कोना कोना जीतते चले गए किंतु हमारा इतिहास उन महान व्यक्तियों को नहीं भूल सकता ।जिन्होंने बड़े-बड़े प्रलोभनों को ठुकरा दिया। मनुष्य की सेवा में अपना अथवा भगवान की भक्ति में। दूसरी श्रेणी में मीराबाई थी। इनके जन्म की ठीक-ठीक तिथि का पता नहीं है ।ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म संवत 1555 और संवत 1561 के बीच हुआ था।
राजस्थान में एक राज्य था जोधपुर। इसके संस्थापक राठौर राजा जोधा जी थे। इनके पुत्र राव दूदा जी को मेवाड़ की जागीर मिली थी। दूदाजी के पुत्र रतन जी थे ।रतन जी की पुत्री मीराबाई थी। इनकी माता उसी समय मर गई थी जब वह बच्ची थी ।इसलिए उनका बाल काल अपने दादा के साथ ही बीता। दादा वैष्णो भक्त थे और भगवान की उपासना में ही इनका अधिक समय बीता था। इसमें संदेह नहीं है कि अपने दादा का प्रभाव मीरा पर पड़ा।
मीरा को बाल काल से ही गिरधर लाल जी के प्रति भक्ति हो गई। इसकी एक कहानी भी प्रचलित है ।एक साधु मीरा के पिता के घर आकर ठहरा। उसके पास गिरधर लाल जी की एक मूर्ति थी ।जिस पर मीरा आकृष्ट हो गई ।उन्होंने साधु से मूर्ति माँगी किन्तु उसने न दी। मीरा मूर्ति के लिए बहुत व्याकुल हुई खाना पीना छोड़ दिया ।रात को साधु को स्वप्न हुआ कि यदि अपना भला चाहते हो तो वह मूर्ति बालिका को दे दो। विवश हो साधु ने वह मूर्ति मीरा को दे दी। मीरा मूर्ति पाकर अपार प्रसन्नता हुई और मीरा उसी की आराधना में रहने लगी ।एक बार पड़ोस में एक कन्या का विवाह पड़ा। विवाह में मीरा तथा उसकी माता भी गई थी। बाल स्वभाव में मीरा ने पूछा मेरा पति कौन है ?माता ने हंसकर कहा तेरा पति गिरधर लाल जी है ना ।उस समय से मीरा ने सच में गिरधर लाल को अपना पति मान लिया।
संवत् 1573 के लगभग उनका विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध वीर राणा सांगा के बड़े राजकुमार कुंवर भोजराज से हुआ ।यह संयोग सुंदर था और दोनों बहुत प्रेम से जीवन बिताने लगे। यह सदा पति की सेवा में रहती। भोजराज भी इनकी ओर आकृष्ट रहे थे किंतु भगवान की कुछ ऐसी लीला हुई कि भोजराज की मृत्यु 10 साल के बाद हो गई। मीरा के जीवन में बड़ा परिवर्तन हो गया। गिरधर लाल की मूर्ति वह अपने साथ लाई थी उन्हीं की पूजा और आराधना में अपने को उन्होंने लगा दिया। इनकी भक्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैली और साधु संत दर्शन के लिए आने लगे। मंदिर में कीर्तन होता था। यह भजन गाती और कभी-कभी भक्ति में विह्लल हो संतो की मंडली के बीच मूर्ति के सम्मुख नाचने लगती।
इतने बड़े राणा की पुत्रवधू इस प्रकार सब के सम्मुख नाचे। परिवार को यह अच्छा ना लगा ।इन्हें अनेक बार मना किया गया कि उन्होंने किसी की परवाह ना कि जब तक राणा सांगा जीवित है इन्होंने इनकी भक्ति पर ध्यान रखा। जब मीरा के देवर सिंहासन पर बैठे उन्होंने मीरा रहन सहन उचित नहीं समझा और उनकी ओर से इनको कष्ट दिए जाने लगे। यहां तक कि उन्होंने चरणामृत के बहाने कटोरी में विष भेज दिया। मीरा चरणामृत समझकर पी गई ।भगवान की कृपा से मीरा के ऊपर विश का कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ।
कष्टों से जब इनका जीवन भारी हो गया तब उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास को एक पत्र लिखा। वह इस प्रकार बताया जाता है -
श्री तुलसी सुख निधान, दुख हरन गुसाईंबारहिं बार प्रनाम करूं ,हरो सोक समुदाईघर के स्वजन हमारे जेते ,सबन्ह उपाधि बढ़ाईसाधु संग अरु भजन करत ,मोहि देत कलेस महाईबालपने ते मीरा कीन्हीं, गिरधरलाल मिताईसो तो अब छूटै नहिं क्यों हूँ, लगी लगन बरियाईमेरे मात पिता के सम ,हौ हरिय ज्ञान सुखदाईहमको कहा उचित है करिबों, यह लिखियो समुझायी ।।
इस पत्र में मीरा ने पूछा है कि घर के लोग हमें सता रहे हैं। हम क्या करें परामर्श दीजिए ।तुलसीदास ने भी पद में इसका उत्तर दिया है कि जिसे भगवान प्रिय नहीं उसकी संगति छोड़ देनी चाहिए वह पद इस प्रकार है -
जाके प्रिय न राम वैदेहीताजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम स्नेहीतज्यो पिता प्रहलाद विभीषण बंधु भरत महतारीगुरु बल तज्यो कन्त बृज बनितनि भे सब मंगलकारीतुलसी सो सब भांति परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो।जासों होय सनेह राम पद एतो मतो हमारो।
इसके पश्चात मीरा मेवाड़ छोड़कर अपने मायके चली आई। वहां कुछ समय तक रही। फिर तीर्थ यात्रा करने के लिए वहां से चल पड़ी। वृन्दावन पहुची और वहां से द्वारिका चली गई।
मीरा के मेवाड़ छोड़ते ही मेवाड़ पर अनेक आपत्तियां आने लगी आक्रमण होने लगे। मीरा को बुलाने कुछ लोग द्वारिका भेजे गए किंतु लौटकर फिर नहीं गई है। द्वारिका में ही इनका देहावसान माना जाता है। इनकी मृत्यु के संबंध में ठीक-ठीक पता नहीं लगता यह भी कहा जाता है कि अकबर तानसेन के साथ मीरा के दर्शन के लिए गया था.
ऊपर की अनेक कथाओं में कहां तक सच्चाई है कहा नहीं जा सकता किंतु इतना निश्चित है कि वही गिरधरलाल की भक्त और उनकी पूजा में उपासना में सदा लीन रहती थी और पद बना बना कर गाया करती थी।
मीरा की कविता में मिठास और टीस है। उन्होंने अपनी रचना में बड़े-बड़े शब्द नहीं ठूँसे है जो किसी की समझ में ना आए। थोड़ी सरल भाषा में अपने हृदय का प्रेम भगवान के प्रति लिखा है। जो शब्द मुंह से निकल गए ब्रजभाषा राजस्थानी गुजराती वही लिख दिया है। इसी से सच्चे भाव उनकी कविता में पाए जाते हैं और जिस समय में अपने पद गाती थी सुध बुध खो देती थी इनकी कविता बनावटी नहीं है अच्छे-अच्छे गाने वाले इनकी रचना गाते हैं उनका हृदय पर तुरंत प्रभाव पड़ता है।
इनके पहले कि किसी महिला कभी की अच्छी कविता नहीं मिलती इन के बाद कई महिलाओं ने कविता की किंतु इनकी सी मिठास और स च्चाई उसमें नहीं मिलती ।भक्ति के सामने राजपाट को उन्होंने तुच्छ समझा अपने परिवार की फटकार की परवाह ना कि इनके जीवन काल में ही उनका नाम दूर-दूर तक पहुंच गया था। उन्होंने किसी से झगड़ा नहीं किया कटु वचन नहीं कहा ।जब तक पति जीवित थे ।उनकी सेवा आदर्श नारी के भांति ही करती रही ।भारतीय नारी समाज के अलंकार थी उनकी देन हिंदी साहित्य को थोड़ी है किंतु जो कुछ है वह अमूल्य है।
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