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आजकल प्रत्येक देश में जनता की चुनी सभाएं हैं, जो अपने अपने देश के लिए कानून बनाती हैं. प्राचीन काल में आज की तरह सभाओं में बैठकर कानून बनाने का ढंग नहीं था. बड़े-बड़े विद्वान अनुभवी और तपस्वी समाज की और लोगों की आवश्यकता समझकर नियम बनाते थे. हमारे यहां कानून में सभी बातें बताई जाती थी. खाना-पीना विवाह इत्यादि से लेकर आपस में कैसा व्यवहार करना चाहिए यह भी कानून में ही समझा जाता था. हर एक मनुष्य को क्या करना चाहिए क्या ना करना चाहिए यह बताएं जाता था. इसे हमारे प्राचीन विद्वान और नेता धर्म कहते थे और आज कल जिसे कानून कहते हैं उसे हमारे प्राचीन लोग धर्म शास्त्र कहते थे.
याज्ञवल्क्य के धर्म शास्त्र के रचयिता थे. इसका यह अर्थ नहीं है कि इन्होंने सब कानून स्वयं बनाएं. पहले जितने धर्मशास्त्र थे और जो कानून या नियम प्रचलित थे उन्होंने उन्हें एकत्र किया और उन्होंने भी जिस बात की देश में या हमारे समाज में आवश्यकता समझी उसके लिए नियम बनाएं. जो चलन जो व्यवहार हमारे लिए उचित नहीं था उसका निषेध किया.
जैसा पहले भी कहा जा चुका है, पुराने समय के लोगों के बारे में यह ठीक-ठीक बताना कठिन हो जाता है कि वह किस स्थान के रहने वाले थे, कब उनका जन्म हुआ और कितने दिनों तक वह जीवित रहे. यही बात याज्ञवल्क्य के संबंध में भी है. इतना ही नहीं इस नाम के कई विद्वान हो गए हैं. महाभारत में लिखा है कि यज्ञवल्क्य महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित थे. एक दूसरी पुस्तक में लिखा है कि वह राजा जनक के दरबार में थे. यह दोनों एक ही नहीं हो सकते क्योंकि राजा जनक की युधिष्ठिर से हजारों वर्ष पहले हुए थे.
कम से कम दो यज्ञवल्क्य तो अवश्य ही हुए हैं. एक बहुत प्राचीन काल में जिनके गुरु व वैशम्पायन थे. कहा जाता है कि उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद बनाया शतपथ ब्राह्मण भी उन्हीं की रचना कही जाती है. दूसरे याज्ञवल्क्य के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने धर्मशास्त्र बनाया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति कहते हैं. यह आज से लगभग 1800 वर्ष पहले हुए थे. पहले मनु हो गए थे जिन्होंने मनुस्मृति नाम का धर्म शास्त्र बनाया था.
याज्ञवल्क्य के बनाए धर्मशास्त्र को याज्ञवल्क्य स्मृति या याज्ञवल्क्य संहिता कहते हैं. इनके बनाए गए नियम मनु के नियम से कड़े हैं. यह पुस्तक अब छपी मिलती है. इसमें 1012 श्लोक हैं और इसके 3 अध्याय हैं. इसमें लिखे नियमों से जान पड़ता है कि इनके बनाने वाले का संबंध किसी राज दरबार से अवश्य रहा होगा, क्योंकि राजा के धर्म के बारे में इसमें बहुत कुछ लिखा गया है. मनुष्य के जीवन की कोई बात छूटने नहीं पाई है. याज्ञवल्क्य संहिता का अनुवाद अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में हो चुका है. इस टीकायें भी बनी है एक टीका का नाम मिताक्षरा और दूसरी को दायभाग कहते हैं. आज भी अदालतों में हिंदू परिवार में कोई जगह जमीन संबंधी झगड़ा जब आता है तब इन्हीं पुस्तकों में लिखे कानून के हिसाब से उस पर विचार होता है. हमारे देश भर में मितक्षरा के अनुसार विचार किया जाता है केवल बंगाल में दायभाग के अनुसार विचार होता है.
याज्ञवल्क्य बड़े ही तपस्वी और विद्वान थे. केवल इतना ही नहीं शास्त्रार्थ में बहुत बड़े पंडितों को इन्होंने विवाद में हराया था. लोगों को इनका लोहा मानना पड़ा. यह विचार की बात है कि आज से हजारों वर्ष पहले जो नियम बने हुए इतने सोच विचार कर बने कि आज भी उन्हें बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ी. हमारे समाज की आवश्यकताओं को बड़ी गहराई से सोच कर उन्होंने धर्म शास्त्र बनाया था. यह साधारण योग्यता की बात नहीं है.
हमारे देश में प्राचीन काल में बहुत बड़े-बड़े ऋषि और महा ऋषि हो गए, किंतु यदि वे तारे थे तो याज्ञवल्क्य सूर्य थे. जिस प्रकार व्यास ने हमारी संस्कृति पर ऐसी छाप लगा दी है कि वह कभी मिट नहीं सकती, उसी प्रकार याज्ञवल्क्य ने भारतीय संस्कृति को अमर तथा अविनाशी बनाने में सफल चेष्टा की है. संन्यास लेते समय जब वे वन में जाने लगे उस समय उन्होंने अपनी पत्नी मैत्री को जो भेज दिया वह सारे उपनिषदों को निचोड़ है.
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