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त्याग और तपस्या को आजकल लोग अनावश्यक समझते हैं. किंतु इतिहास से पता चलता है कि संसार में वही महान माना गया है और उसी का नाम अमर है जिसने दूसरों के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान किया. हमारे देश में सदा से ऐसे लोग होते चले आए हैं इन्हीं में एक महान पुरुष पितामह भीष्म है.
जिन दिनों महाभारत की लड़ाई हुई उसके कुछ ही पहले एक राजा थे जिनका नाम शांतनु था. यह उत्तरी भारत में राज्य करते थे और उनकी राजधानी हस्तिनापुर थी. इनकी पत्नी का नाम गंगा था. इन्हीं के पुत्र का नाम भीष्म था. भीष्म के जन्म के कुछ ही दिनों बाद गंगा का देहांत हो गया. शांतनु एक दिन शिकार के लिए जा रहे थे. रास्ते में इन्हें एक नदी पार करनी थी. जब यह नदी के तट पर पहुंचे इन्होंने किनारे पर एक युवती को देखा. हमसे चंचल लहरों की गति निरख रही थी. अद्वितीय सुंदरी थी. शांतनु ने उसे देखा और आखेट भूल गए. अपने साथियों के पास लौट आए और उस युवती से विवाह करने की इच्छा प्रकट की.
युवती मल्लाह की कन्या थी. उसका नाम सत्यवती था. उसके पिता के पास जब शांतनु के अधिकारी पहुंचे, उसने इस संबंध को धन्य माना किंतु कहा एक शर्त पर अपनी कन्या का विवाह कर सकता हूं कि राजा की मृत्यु के पश्चात मेरी कन्या का पुत्र गद्दी पर बैठेगा भीष्म नहीं. शांतनु इस पर सहमत नहीं हुए और उन्होंने सत्यवती के पिता से यह बात कह दी और हस्तिनापुर लौट आए.
लौट तो आई किंतु सत्यवती को वह नहीं भूले और बीमार पड़ गए बीमारी बढ़ गई सब लोग दुखी हो गए भीष्म ने उनके उपचार किए मंत्रियों से का कारण पता चला पीस मिले किसी से कुछ नहीं कहा सीधे मल्लाह के पास गए और उससे कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं हस्तिनापुर का सिंहासन छोड़ दूंगा इतना ही नहीं सत्यवती के पुत्र की सहायता करूंगा तुम अल्लाह ने कहा मैं आपका विश्वास करता हूं लेकिन आपकी जो संतान होगी उसके संबंध में यह सकता है इसलिए यदि आप यह भी वचन दे कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा तब मैं सत्यवती का विवाह आपके पिता से कर दूंगा एक क्षण के लिए विचार किया और कहा मैं कभी भी बात नहीं करूंगा और उस मल्लाह ने अपनी कन्या का विवाह शांतनु से कर दिया.
विवाह के पश्चात शांतनु सुख पूर्वक राजकाज करने लगे सत्यवती के पुत्र व शांतनु की मृत्यु के पश्चात सत्यवती का बड़ा पुत्र हस्तिनापुर का राजा हुआ किंतु शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई इसके पश्चात दूसरा पुत्र सिंहासन पर बैठा बस भाई भी अल्पकाल में ही काल की गति को प्राप्त हो गया अब कौन सिंहासन पर बैठे कोई दूसरा उत्तराधिकारी शांतनु का नहीं था बीच में से सब लोगों ने कहा भीष्म ने स्पष्ट रूप से यह अस्वीकार कर दिया उन्होंने कहा कि मनुष्य की प्रतिज्ञा ठीक नहीं है जो झटके में टूट जाया करती है जो बात एक बार कह दी गई उससे लौटना मनुष्य की दुर्बलता है चरित्र की हीनता है उन्होंने सिंहासन नहीं स्वीकार किया आज जब हम देखते हैं कि एक 1 इंच धरती के लिए नाना प्रकार से पाप करते हैं तब हमें भीष्मा की महत्ता समझ में आती है.
भीष्म के चरित्र की यही विशेषता थी कि जो प्रतिज्ञा कर लेते थे उससे नहीं हटते थे एक नहीं उनके जीवन में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं. उनके जीवन में इस प्रकार के अनेक उदाहरण है उनके जीवन में ही महाभारत का युद्ध आरंभ हो गया भीष्म कौरवों की ओर थे. कृष्ण पांडवों की ओर थे. कृष्ण ने कहा था मैं अर्जुन का रथ सकूंगा लडूंगा नहीं भीष्म ने प्रतिज्ञा की मैं कृष्ण को शस्त्र लेने को विवश कर लूंगा महाकवि सूरदास एक सुंदर गीत भी इस पर लिखा है उसकी आरंभ की पंक्तियां इस प्रकार है -
आजु जो न हरि को शस्त्र गहाऊँतो लाजों गंगा जननी को शान्तनु सुत न कहाऊँ।।
भीष्म ने बाणों का प्रहार आरम्भ किया और उससे पांडवों की सेना का ऐसा संहार होने लगा कि कृष्ण ने चक्र उठा ही लिया बस इतनी सी बात थी उन्होंने कृष्ण से कहा मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई आगे कुछ नहीं चाहता ।इसी से भीष्म की प्रतिज्ञा का बड़ा महत्व समझा जाता है ।भीष्म प्रतिज्ञा कहावत हो गई है जब कोई कठिन प्रतिज्ञा करता है तब लोग उसे भीष्म प्रतिज्ञा कहते हैं.
भीष्म का सभी लोग बहुत आदर करते थे उनके मित्र भी और उनके विरोधी भी. भीष्म ने बहुत चेष्टा की की महाभारत का युद्ध ना हो किंतु उनकी चली नहीं यद्यपि युद्ध होने पर वह भी लड़े तथा भी उन्हें यह बात अच्छी ना लगी वह लड़ रहे थे कौरवों की ओर से पर पांडवों से उनकी मित्रता बनी रहे अर्जुन के लिए उनके हृदय में बहुत स्नेह था पांचो पांडव उन्हें श्रद्धा से देखते थे.
उनकी प्रतिज्ञा की एक और कथा है युद्ध में भी अर्जुन के बाणों से घायल हुए उनके शरीर के चारों ओर पानी पीने गए इतने बार थे कि शरीर दिखाई नहीं देता था वह रणभूमि में गिर गए बचने की कोई आशा नहीं रह गई थी उन्होंने प्रण किया कि जब तक सूर्य उत्तरायण में नहीं आ जाएगा मैं नहीं मरूंगा पृथ्वी जब सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है तब सूर्य भूमध्य रेखा के उत्तर 6 मार्च रहता है और 6 मास भूमध्य रेखा के दक्षिण में जब सूर्य दक्षिण में रहता है उसे दक्षिणायन कहते हैं और जब भूमध्य रेखा के उत्तर में तब उत्तरायण कहते हैं यह विश्वास किया जाता है कि सूर्य दक्षिणायन में जब रहता उस समय कोई मरता है तब ठीक नहीं इस विश्वास में भी इसमें सूर्य दक्षिणायन में रहते हुए मरना नहीं चाहते थे सब लोग ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कर सकते हो सकता है इतना आत्मविश्वास बढ़ चले लोगों को नहीं होता है इतना आत्मविश्वास उसी को हो सकता है जिसका चरित्र महान और उज्जवल हो इसमें के समान ही लोग मृत्यु को ललकार सकते हैं.
6 मास के लगभग इसी प्रकार पड़े रहे लोग उनकी सेवा करते रहे और उन्होंने मृत्यु को अपने पास फटकने नहीं दिया इसी समय की घटना है कि एक बार उन्हें प्यास लगी जब लोग पानी लाए किंतु उन्होंने ग्रहण नहीं किया उन्होंने अर्जुन से जल्द आने को कहा अर्जुन ने पृथ्वी पर एक बार चलाया और बाण दूर तक पृथ्वी के अंदर चला गया एक धारा जल की फूट निकली वही जल भीष्म ने ग्रहण किया और उन्हें शांति मिले.
जब उनकी मृत्यु का समय निकट आ गया सभी कौरव तथा पांडवों ने देखने आई युधिष्ठिर ने भाइयों की ओर से बीच में से क्षमा मांगी उनसे शासन के संबंध में परामर्श मांगा भीष्म ने बहुत सी बातें उन्हें बताई जो महाभारत की पुस्तक में ब्यावरा में लिखी गई है यह बातें बड़े अनुभव तथा महत्व की है.
भीष्म का बल असाधारण था किंतु उनका चरित्र उससे भी असाधारण था यह अधिवेशन के समान वचन पक्के व्यक्ति हमारे देश में हो जाए तो हमारा देश अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त कर ले और संसार का सिरमौर हो जाए.
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