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Indus Valley Civilization क्या है ? इसको विस्तार से विश्लेषण करो ।

🧾 सबसे पहले — ब्लॉग की ड्राफ्टिंग (Outline) आपका ब्लॉग “ सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) ” पर होगा, और इसे SEO और शैक्षणिक दोनों दृष्टि से इस तरह ड्राफ्ट किया गया है ।👇 🔹 ब्लॉग का संपूर्ण ढांचा परिचय (Introduction) सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव और समयकाल विकास के चरण (Pre, Early, Mature, Late Harappan) मुख्य स्थल एवं खोजें (Important Sites and Excavations) नगर योजना और वास्तुकला (Town Planning & Architecture) आर्थिक जीवन, कृषि एवं व्यापार (Economy, Agriculture & Trade) कला, उद्योग एवं हस्तकला (Art, Craft & Industry) धर्म, सामाजिक जीवन और संस्कृति (Religion & Social Life) लिपि एवं भाषा (Script & Language) सभ्यता के पतन के कारण (Causes of Decline) सिंधु सभ्यता और अन्य सभ्यताओं की तुलना (Comparative Study) महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक खोजें और केस स्टडी (Key Archaeological Cases) भारत में आधुनिक शहरी योजना पर प्रभाव (Legacy & Modern Relevance) निष्कर्ष (Conclusion) FAQ / सामान्य प्रश्न 🏛️ अब ...

तत्व और सार का सिद्धांत (doctrine of pith and substance)

अनुच्छेद 246 ने संघ राज्यों के बीच विधाई शक्तियों का विभाजन करने की दृष्टि से विधायन सम्बंधित  विभिन्न विषयों को अलग-अलग सूचियों में निर्दिष्ट किया है यह सूचियां है

(1) संघ सूची

( 2) राज्य सूची

( 3) समवर्ती सूची

          संघ सूची में उल्लेखित विषयों पर केंद्र को और राज्य सूची में उल्लेखित विषयों को राज्यों को कानून बनाने की शक्ति किस अनुच्छेद द्वारा प्रदान की गई है जबकि समवर्ती सूची के विषय पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई है इसके बावजूद यह अनुच्छेद केंद्रीय कानून को सर्वोच्चता प्रदान करता है.

  •            भारतीय संविधान के अनुसार अनुच्छेद 246 के उपबंधों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने तत्व और सार का सिद्धांत उस समय लागू करते जब  विधान मंडल द्वारा बनाया गया कोई कानून दूसरे विधानमंडल के विधाई विस्तार क्षेत्र का भी अतिक्रमण करता है या करने लगता है उस समय इस बात का निर्धारण करने के लिए वादग्रस्त कानून उसे बनाने वाले विधानमंडल को विदाई शक्ति के अधीन है या नहीं? न्यायालय इस सिद्धांत के आधार पर यह निर्णय करते हैं कि यदि वह कानून सारवान रूप से या उसका वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से संबंधित है जिस पर वह विधानमंडल कानून बनाने मे अक्षम है तो उसे मान्य घोषित किया जाएगा भले ही वह दूसरे विधानमंडल के विधायी क्षेत्र में आने वाले विषय पर अनुषांगिक रूप से अतिक्रमण करता हो । उस कानून की वास्तविकता प्रकृति और स्वरूप का पता लगाने के लिए इस सिद्धांत के अंतर्गत पूरे अधिनियम पर विचार किया जाता है और उसके उद्देश्य और विस्तार तथा उसके उपबंधों के प्रभाव की जांच की जाती है.


             इस सिद्धांत को सबसे पहले पृवी काउंसिल ने प्रफुल्ल कुमार बनाम खुलना बैंक एआईआर 1947 पीसी मामले में लागू किया था इस मामले में बंगाल विधानमंडल में ऋण  का व्यापार नियंत्रण करने के लिए बंगाली साहूकारी अधिनियम मनी लेंडर्स एक्ट 1940 पास  किया था इस अधिनियम में बंगाल प्रांत में ऋण पर ब्याज की दर की एक निश्चित सीमा नियत कर दी थी जिसे की ऋण दाता(साहूकारों )का करने के भी अधिक ब्याज वसूल ना कर सके वादी साहूकार ने इस अधिनियम को इस आधार पर चुनौती दी कि वह बंगाल विधानमंडल की विधाई शक्ति के बाहर है क्योंकि वह संघ सूची में उल्लेखित प्रोनोट से संबंधित है जिस पर केवल केंद्रीय विधानमंडल ही कानून बना सकती है न्यायालय ने निर्णय लिया कि अधिनियम प्रांतीय विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र के अंदर है क्योंकि उसका सार या मुख्य उद्देश्य राज्य सूची के विषय ऋण तथा ऋण दाता से संबंधित है भले ही वह अनुषांगिक रूप से संघ सूची के विशेष प्रा नोट से संबंधित हो और उसका अतिक्रमण हो।

पुणे मुंबई राज्य बनाम बालसरा A.I.R1951 S.C.318 के मामले में मुंबई राज्य के मध्य निषेध अधिनियम की संवैधानिक को इस आधार दी गई कि उसने संघ सूची में उल्लेखित विषय मादक द्रव्यों के आयात निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्य सूची के विषय से संबंधित है संघ सूची से नहीं इसलिए वह संवैधानिक है.

छद्दम विधायन का सिध्दांत (Doctrine  of Colourable Legislation )

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत विधाई शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच किया गया है उसके अंतर्गत ही किसी विधायिका ने कार्य किया है या उसका उसके बाहर ऐसा प्रश्न तब होता है जब कोई विधायिका किसी कानून को बनाने में ऊपरी तौर से अपनी शक्तियों के अंदर कार्य करती हुई दिखाई देती है किंतु यथार्थ रूप से वह संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है इस तरह का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है ऐसे परोक्ष विधान को संविधान कहते हैं और ऐसे मामलों में अधिनियम का सार महत्वपूर्ण होता है उसका बाह्य आकृति कौन होती है जब किसी विधान की विषय वस्तु सारत:उस विधान को बनाने वाली विधानमंडल की शक्ति से बाहर होती है तो उसका बाह्य रुप उसे न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित किए जाने से नहीं बचा सकता है कोई भी विधानमंडल कोई परोक्ष ढंग अपनाकर संविधानिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता है.

आर एस जोशी बनाम अजित मिल्स लि ए आई आर 1977 एस सी 1279 के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने संविधान की परिभाषा करते हुए कहा कि छद्दमता से तात्पर्य अक्षमता से है कोई वस्तु तब छद्दम  होती है जब वह वास्तव में उस रूप में नहीं होती है जिस रूप में वह प्रस्तुत की जाती छद्दमता में दुर्भावना का तत्व नहीं होता है.

           इस सिध्दांत का आधार यह होता है कि जो काम विधानमंडल प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता है उसे व अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता इसलिए जब तक किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति संविधान के अंतर्गत प्रत्यक्ष रूप से नहीं रखता है तब किसी अप्रत्याशित ढंग से भी वह ऐसा कानून नहीं बना सकेगा.

             ऐसे को कैसे जैसा कि ऊपर पहले ही कहा जा चुका है कि न्यायालय कानून की वास्तविक प्रकृति एवं स्वरूप की जांच करते हैं ना कि उसके प्रयोजन की जो उसमें प्रत्यक्ष रूप से प्रकट रहता है यदि विधान मंडल को किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है तो इस बात का कोई महत्व नहीं हो सकता कि वह किस प्रयोजन योजन से बनाया गया है.

       कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य A.I.R.-1952 एससी 255 के मामले में बिहार लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1950 के अंतर्गत जमीदारों की भूमि अधिग्रहित कर ली गई थी एक्ट में उन्हें प्रति कर देने की व्यवस्था की गई और उन्हें मालगुजारी के रूप में मिलने वाली आय के आधार पर प्रति कर दिया जाना था और भूमि अधिग्रहण के पूर्व की मालगुजारी की बकाया धनराशि राज्य में लेट हो जानी थी और उन में से आधी मुआवजा के रूप में जमींदारों को दिए जाने की व्यवस्था की गई थी.

           इस नियम को कोर्ट में चुनौती दिए जाने पर कोर्ट ने उसे शतम विधान के सिद्धांत पर असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि उसमें प्रतिकार को निर्धारित करने के लिए कोई आधार भी ही नहीं किया गया था हालांकि ऊपरी तौर पर ऐसा करने का प्रयत्न अवश्य किया गया था फिर भी उस में दी गई व्यवस्था के परिणाम स्वरुप जमीदारों को कोई प्रति कर नहीं मिलता था.

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