Drafting और Structuring the Blog Post Title: "असुरक्षित ऋण: भारतीय बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, और RBI की भूमिका" Structure: परिचय असुरक्षित ऋण का मतलब और यह क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में असुरक्षित ऋणों का वर्तमान परिदृश्य। असुरक्षित ऋणों के बढ़ने के कारण आसान कर्ज नीति। उधारकर्ताओं की क्रेडिट प्रोफाइल का सही मूल्यांकन न होना। आर्थिक मंदी और बाहरी कारक। बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव वित्तीय स्थिरता को खतरा। बैंकों की लाभप्रदता में गिरावट। अन्य उधारकर्ताओं को कर्ज मिलने में कठिनाई। व्यापक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आर्थिक विकास में बाधा। निवेश में कमी। रोजगार और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव। भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका और समाधान सख्त नियामक नीतियां। उधार देने के मानकों को सुधारना। डूबत ऋण प्रबंधन (NPA) के लिए विशेष उपाय। डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग। उदाहरण और केस स्टडी भारतीय बैंकिंग संकट 2015-2020। YES बैंक और IL&FS के मामले। निष्कर्ष पाठकों के लिए सुझाव और RBI की जिम्मेदारी। B...
होनहार वीरवान के होते चिकने पात के अनुसार बालक रविंद्र के बचपन में एक विशिष्टता थी जो साधारणतया इस आयु के बालकों में नहीं पाई जाती है।
बालाघाट रविंद्र का जन्म धनी घराने में हुआ था पर धनी परिवार के बच्चों में बहुत भोग विलास की जो अधिकता पाई जाती है वह बालक रविंद्र के भाग्य में ना थी।
आज बीसवीं सदी के इस बदलते हुए जमाने में जो पोशाके तुम पहनते हो उनकी सूची बनाई जाए तो काफी लंबी होगी सर्दी के मौसम में तो इन वस्त्रों की संख्या और भी बढ़ जाती है कोर्ट स्वेटर जैकेट्स इत्यादि परंतु बालक रविंद्र केवल दो सूती कुर्तों से अपना काम चलाया करता था यह तो हुई सर्दी के मौसम की बात।
गर्मी के दिनों में तो एक कुर्ता ही काफी होता था परंतु इस छोटी सी बात के लिए बालक रविंद्र ने हमजोली के बच्चों की तरह माता-पिता से ना कोई शिकायत की और ना ही जिद पकड़ी है।
रविंद्र के बचपन में ठाकुर परिवार के कपड़े दर्जी नियामत खलीफा सिया करता था। यह नियामक खलीफा कभी-कभी रविंद्र के कुर्ते में जेब लगाने की आवश्यकता ना समझता एक तो केवल एक या दो कुर्ते और उसमें यदि जेब ना हो तो इससे छोटे बालक के लिए कितनी कठिनाई होगी । क्योंकि बचपन में ही बच्चों को जीवो की आवश्यकता सबसे ज्यादा पड़ती है क्योंकि वह बच्चे उसमें कांच की गोलियां रंगीन पेंसिल एक टुकड़े मूल्यवान संपत्ति कुर्तों की ही जेब के अलावा भला और कहां सुरक्षित रख सकते हैं इसलिए जब नियामक बिना पॉकेट का कुर्ता सीकर लापता बालक रविंद्र और खेल हो उठता था।
बालक रविंद्र ने 10 वर्ष की अवस्था से पहले मौजे की सूरत नहीं देखी थी जूते ही नहीं थे फिर भला मुझे कहां से आते केवल 1 जोड़ी चप्पल थी वह भी पैर के नाप के नहीं बेडौल एवं भारी।
धनी परिवार में जन्म लेने से सुख और दुख दोनों ही सहने पड़ते हैं पर हमारे इस कवि के हिस्से में भगवान ने केवल दुख ही दुख लिखे थे कभी का बचपन नौकरों के बीच में भीतर रविंद्र का बचपन जिन नौकरों के बीच में बीता हुआ स्वभाव से अच्छे ना थे कवि ने अपनी जीवनी में बचपन का वर्णन करते हुए लिखा है कि बचपन के संरक्षक नौकरों की मर्यादा अब तक वजनी पुरुषों का तेल जलने वाले चारों के रूप में ताजी है इन लोगों में से एक नौकर का नाम ईश्वर था ऊपर वाला ईश्वर संसार के लोगों को भोजन देता है उसी प्रकार इस ईश्वर नामक नौकर के जिम्मे ठाकुर परिवार के बच्चों के भोजन की व्यवस्था थी।
बच्चों को खाना परोसने में वह ऐसी कंजूसी दिखाता की भूख रहते हुए भी शर्म के मारे अधिक ना मांगा जाता था बच्चों से दो पूरियां परोस कर कहता की और कहता और पूरियां तो नहीं चाहिए।
* इन पूरियों में उस नौकर के प्राण बसते थे अतः मारे शर्म के बालक रविंद्र अधिक ना मांग सकते थे।
ईश्वर की खुराक खूब थी वह अफीमची था अतः उसे भूख लगना स्वाभाविक था वह तो बच्चों के हिस्से का दूध भी उन्हें पूरा न देकर आधे से अधिक स्वंय पी जाता था.
इसी ठाकुर परिवार के एक दूसरे नौकर का नाम श्याम था. वह बालक रविंद्र को एक निश्चित स्थान पर बैठा कर उसके चारों और खड़िया से एक गहरा खींच देता और फिर मुंह को गंभीर बना आंखें फैलाकर तर्जनी उंगली से उस को दिखाकर कहता यदि घेरे को पार किया तो आफत आएगी। इस आने वाली आफत का कोई स्पष्ट ज्ञान कभी को ना था किंतु आशंका से कवि का हृदय दहल जाता था खीरे के बाहर जाने से बेचारी सीता पर कैसी-कैसी आंखों का पहाड़ टूटा था यह कवि ने रामायण में अच्छी तरह से पढ़ लिया था अतएव वे उस घेरे की महिमा को आ विश्वासी की तरह हंसकर नहीं टाल सकते थे।
उनका बचपन श्याम के उस खीचे घेरे के भीतर बैठे बैठे ही बीता यह स्थान दुम जिले के दक्षिण पूर्व वाले कमरे में था घेरे में बंदी बालक कमरे की खुली खिड़की से बाहर संसार का दृश्य देखता यह दृश्य देखते हुए उसे समय का ज्ञान ना रहता समय मानो पंख लगाकर उड़ जाता।
खिड़की खोलते ही दिखाई पड़ता है एक तालाब तालाब के पक्के बंदे घाट के किनारे ऋषि-मुनियों की तरह जटा जूट फैलाए एक बूढ़ा बरगद का पेड़ था दक्षिण की और नारियल के वृक्षों की कतार भय से घबराए शिष्यों की तरह हवा से कांपती हुई वृद्ध बरगद के सामने सिर झुकाती। सवेरे से दोपहर तक घाट पर नहाने वालों की भीड़ भाड़ रहती है।
घर को सीढ़ियों पर फैली धूप एक एक सीढी सिमटने लगती है नहाने वालों की संख्या भी कम हो आती घाट सुनसान हो जाता तालाब में इस समय दिखाई देते राजहंस और बत्तक तैरते हुए।
कैदी जिस तरह जेल की कोठरी से बाहर का दृश्य देखता है उसी प्रकार रविंद्र का बचपन खिड़की के बाहर के वृक्षों और पशु पक्षियों को देखने में बीता.
प्रकृति के इन दृश्यों को देखकर कवि उससे मित्रता करने उसमे स्वयं को रमाने के लिए झटपटाता वह प्रकृति के पास जाना चाहता था परंतु ठाकुर परिवार का आदेश ऊंची दीवारों से भी अधिक कठोर था।
बचपन में रविंद्र नाथ टैगोर को कोलकाता से बाहर जाने का अवसर कभी नहीं मिला परंतु उसके कवि मन ने कल्पना के सुंदर राज्य में प्रवेश कर लिया था.
कवि रविंद्र के विषय में जो कुछ कहा गया है वह उनके बाल्यकाल की अधूरी इच्छाओं का ही चित्रण है.
कवि के बचपन के 7 या 8 वर्ष नौकरों की देखरेख में बीते नौकरों में कृतिवास रामायण और चाणक्य श्लोक बहुत प्रचार था इन्हें दो पुस्तकों से बालक रविंद्र ने काव्य पढ़ना प्रारंभ किया।
कवि के भांजे का नाम ज्योति प्रकाश था यह कवि से आयु में बड़े थे इन्होंने ही पहले पहल कभी को पध्द लिखने की विधि और शैली सिखलाई।
कविता बनाने का ढंग सीखने के उपरांत बालक काफी उत्साहित हो कविता रचने भीड़ गया अपने बचपन के उन दिनों की कवि ने बाद में बड़ी सुंदर व्याख्या की है हिरण का छौना नए-नए सिंघ निकलने पर जिस प्रकार यहां वहां सिंघ मारता फिरता है या एक छोटा बच्चा दूध के दो नए दांत निकलने पर जिस प्रकार उन दातों से मिट्टी पत्थर बटन इत्यादि किसी भी चीज को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार कवि ने भी नई कविता रचना के नाम पर उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया दीवार कागज के पर इस उत्पात के अस्त्र बने.
खेद है कि कभी के उत्पाद के निशान ढूंढने से नहीं मिलते हैं ठाकुर परिवार के एक मुनीम से कवि ने नीले रंग का एक रजिस्टर बड़ी खुशामद कर मांगा था इसी रजिस्टर में कवि ने अपने बचपन में पहले पहल कविता लिखना प्रारंभ किया था पता नहीं वह रजिस्टर कहां खो गया है.
कवि को छोटी आयु में ही ओरिएंटल सेमिनरी में भर्ती किया गया परंतु विद्यालय की पढ़ाई में कवि का मन नहीं लगा लाचार हो देवेंद्रनाथ कवि के पिता ने बालक रविंद्र को साधारण विद्यालय में भर्ती करवा दिया इसी साधारण विद्यालय में पढ़ते समय बालक रविंद्र की कविता रचना आरंभ हुई इस समय कवि की प्रशंसा विद्यालय के शिक्षकों के कानों तक पहुंची वह कभी-कभी बालक रविंद्र को कविता बनाकर लाने को कहते हैं।
बालक रविंद्र विद्यालय जाने से जी चुराता था उस समय के शिक्षकों का मत था कि मार के बिना विद्या नहीं आती है विद्यालयों में नाना प्रकार के दंड विधान प्रचलित थे इसी से कोमल बालक का मन विद्यालय जाने के नाम से कांप उठता हुआ विद्यालय ना जाने के लिए बड़े भाइयों के जूतों में पानी भर उन्हें पहन छत पर चहलकदमी करता जिससे उसे ज्वर आ जाए और विद्यालय रूपी बूचड़खाने से छुट्टी मिले पर ईश्वर ने बालक को ऐसा अच्छा स्वास्थ्य दिया कि दुष्ट ज्वर पास बैठने का नाम नहीं लेता और बेचारे बालक को मन मार कर विद्यालय जाना पड़ता शिक्षा पद्धति का यह दोष कवि के ह्रदय में कांटे की तरह चुभता था बाद में उन्होंने आदर्श शिक्षा पद्धति के लिए बोलपुर शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय की स्थापना की. आज कवि की यह शिक्षा संस्था विश्व की श्रेष्ठ शिक्षा संस्थाओं में गिनी जाती है.
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