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असुरक्षित ऋण क्या होते हैं? भारतीय बैंकिंग संकट, अर्थव्यवस्था पर प्रभाव और RBI के समाधान की एक विस्तृत विवेचना करो।

Drafting और Structuring the Blog Post Title: "असुरक्षित ऋण: भारतीय बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, और RBI की भूमिका" Structure: परिचय असुरक्षित ऋण का मतलब और यह क्यों महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में असुरक्षित ऋणों का वर्तमान परिदृश्य। असुरक्षित ऋणों के बढ़ने के कारण आसान कर्ज नीति। उधारकर्ताओं की क्रेडिट प्रोफाइल का सही मूल्यांकन न होना। आर्थिक मंदी और बाहरी कारक। बैंकिंग क्षेत्र पर प्रभाव वित्तीय स्थिरता को खतरा। बैंकों की लाभप्रदता में गिरावट। अन्य उधारकर्ताओं को कर्ज मिलने में कठिनाई। व्यापक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आर्थिक विकास में बाधा। निवेश में कमी। रोजगार और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव। भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका और समाधान सख्त नियामक नीतियां। उधार देने के मानकों को सुधारना। डूबत ऋण प्रबंधन (NPA) के लिए विशेष उपाय। डिजिटल और तकनीकी साधनों का उपयोग। उदाहरण और केस स्टडी भारतीय बैंकिंग संकट 2015-2020। YES बैंक और IL&FS के मामले। निष्कर्ष पाठकों के लिए सुझाव और RBI की जिम्मेदारी। B...

केसवानंद भारती वाद(kesavanand bharti vs.state of kerala)

केसवानंद भारती केस
केसवानंद भारती और अन्य बनाम केरल राज्य वाद के मुख्य याचिकाकर्ता केसवानंद भारती का निधन हो गया ह

केसवानंद भारती के बारे में

केरल वाद केरल भूमि सुधार अधिनियम 1963 के तहत सरकार द्वारा केसवानंद भारती की भूमि के अनिवार्य अधिग्रहण को चुनौती देने वाले केरल सरकार के विरुद्ध दायर एक याचिका से संबंधित थी इस याचिका में राज्य सरकार पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 26 और 31 में प्रत्याभूत मूल अधिकारों के अतिक्रमण का आरोप लगाया गया था.


इस मामले की सुनवाई 13 न्यायाधीशों की पीर द्वारा की गई थी यह उच्चतम न्यायालय के उस समय गठित सबसे बड़ी पीठ थी सुनवाई की प्रक्रिया के आरंभ होने पर वाद के दायरे का निम्नलिखित को संशोधित करने के लिए विस्तार किया गया था.

गोरखनाथ मामले की व्याख्या

अनुच्छेद 368 की व्याख्या संविधान में संशोधन के लिए संसद की शक्ति
24 वें संविधान संशोधन अधिनियम 25 में संविधान संशोधन अधिनियम की धारा दो और तीन तथा 29 वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता


पृष्ठभूमि
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था क


अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन करने की प्रक्रिया शामिल है परंतु यह संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान नहीं करता है संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति और विधाई शक्तियों के मध्य कोई अंतर नहीं है और संविधान में किसी भी संशोधन को अनुच्छेद 13 (2) राज्य को मूल अधिकारों को हटाने या निरस्त करने के लिए कोई भी कानून बनाने से प्रतिबंधित करता है सावधान के सुसंगत कानून माना जाना चाहिए इसका अनिवार्य रूप से यह तात्पर्य था कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है.

मूल अधिकारों में संशोधन के लिए एक नई संविधान सभा की आवश्यकता होगी.     

                  गोरखनाथ मामले के उपरांत संसद द्वारा संविधान में कई संशोधन किए गए

24 वर्ष संशोधन इस में उपबंध किया गया कि संविधान संशोधन अनुच्छेद 13 के तहत विधि नहीं इसलिए संसद में किसी भी मूल अधिकार में संशोधन करने की शक्ति निहित है संसद को भारत के संविधान के किसी भी प्रावधान को संशोधित करने की शक्ति प्राप्त है.

25 वा संशोधन

नियम की धारा 2 ने संपत्ति के अधिकार में कटौती की थी और सार्वजनिक उपयोग के लिए सरकार द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण की अनुमति प्रदान की थी साथ ही क्षतिपूर्ति की राशि का निर्धारण संसद द्वारा किया जाना था ना कि न्यायालय द्वारा धारा तीन ने राज्य की नीति के निर्देशक तत्व को मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान की थी और विभिन्न अनुच्छेद 39 बी और 39 सी के तहत निर्धारित नीतियों को न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे से मुक्त कर दिया था.


29 वां संशोधन

इसने भारत के संविधान की नौवीं अनुसूची केंद्रीय और राज्य कानूनों की सूची जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है मैं तो भूमि सुधार कानून समाविष्ट किए थे.

केसवानंद भारती वाद के निष्कर्ष

24 में संशोधन की वैधता को बरकरार रखा गया है उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया है कि संसद को संविधान के किसी भी या सभी प्रावधानों में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है बशर्ते संशोधन द्वारा संविधान की अनिवार्य विशेषताएं या मूलभूत सिद्धांतों या मूल ढांचे में परिवर्तन उनकी छतिया लोक नहीं होना चाहिए इसे मूल ढांचे के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है.


गोरखनाथ मामले में के निर्णय को सही किया गया:

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन करने की शक्ति और प्रक्रिया दोनों शामिल है तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्तियां एवं विधाई शक्तियां भिन्न-भिन्न है अन्य निर्णय उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन की समीक्षा की और अपनी शक्ति को कम करने वाले सॉन्ग को छोड़कर 25 में एवं 29 में संशोधन को वैद्य स्वीकार किया और यह भी कहा कि उद्देशिका संविधान का एक भाग है तथा इसलिए इसमें संशोधन किया जा सकता है.


केसवानंद भारती वाद का महत्व

इसने न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे का विस्तार किया जहां शीर्ष न्यायालय भारतीय लोकतंत्र की व्यापक भावना को आहत करने वाले किसी भी संविधान संशोधन को अवैध घोषित करने के लिए मूड ढांचे के सिद्धांत को लागू करने हेतु स्वतंत्र है भारतीय संविधान में बड़ी संख्या के लिए किए गए संशोधन के बावजूद मूल ढांचे के सिद्धांत ने संविधान निर्माताओं के अभिन्न दर्शन को संरक्षित करने में सहायता प्रदान की इस ने न्यायिक पुनरावलोकन को समाप्त करने और संविधान में संशोधन करने की संसद की प्रतिबंधित शक्ति के प्रयोग को प्रतिबंधित किया संविधान 42वां संशोधन अधिनियम 1976 के माध्यम से है इसके अतिरिक्त ने संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति और विधाई शक्तियों में अंतर को स्पष्ट किया तथा उद्देशिका को भारत के संविधान में इसका न्यायोचित हुआ अभी स्थान प्रदान किया.

“मूल ढांचे के सिद्धांत का विकास: मूल ढांचे के सिद्धांत के लिए संविधान में कोई संदर्भ प्रदान नहीं किया गया है यह विभिन्न न्यायालय निर्णय के माध्यम से विकसित हुआ है”

शंकरी प्रसाद बाद वर्ष 1951 और सज्जन सिंह बाद वर्ष 1965

जैसे वादों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद अनुच्छेद 368 का उपयोग करते हुए मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है.

गोरखनाथ बाद वर्ष 1967: इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने माना कि संसद द्वारा मूल अधिकारों को संशोधित नहीं किया जा सकता है जिसका तात्पर्य है कि संविधान की कुछ विशेषताएं इसके मूल में नहीं थे और इन्हें परिवर्तित करने के लिए सामान्य प्रक्रियाओं की तुलना में विशेष प्रक्रियाओं की आवश्यकता है इस निर्णय ने मूल ढांचे के सिद्धांत के लिए मार्ग प्रशस्त किया था.


केसवानंद भारती वाद वर्ष 1973:
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद मूल अधिकारों से संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है बशर्ते संविधान की मूल संरचना या ढांचे में विकृति उत्पन्न ना होनी चाहिए.


वाद दरवाद के आधार पर विकास:

उच्चतम न्यायालय ने तब से इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण बाद वर्ष 1975 मिनर्वा मिल्स बाद वर्ष 1980 एसआई बोम्मई बाद वर्ष 1994 आदि के माध्यम से इस सिद्धांत को को संगठित औरे पुनः  पुष्ट करना करने का प्रयास किया तथा भारतीय संविधान के मूल ढांचे का निर्माण करने वाले सिद्धांतों का सविस्तार वर्णन किया है.

वर्तमान में कुछ सिद्धांत जो मूल ढांचे का हिस्सा है वह निम्नलिखित है

भारत की संप्रभुता

नागरिकों के लिए सुरक्षित व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आवश्यकता विशेषताएं

कल्याणकारी राज्य के निर्माण के लिए आदेश

संविधान की सर्वोच्चता

सरकार का गणतंत्र आत्मक और लोकतांत्रिक स्वरूप

विधान की पंथनिरपेक्ष और संघीय प्रकृति

कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका के मध्य शक्तियों का पृथक्करण

राष्ट्र की एकता और अखंडता

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति

मूल अधिकारों के मध्य सामंजस्य और संतुलन आदि.


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