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संविधान एक लिखित दस्तावेज होता है संविधान के आधार पर ही देश की प्रशासनिक व्यवस्था चलाई जाती है संविधान की प्रसाद संगीता बनाए रखने के लिए उसमें बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन आवश्यक होते हैं इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए भारतीय संविधान में भी संशोधन प्रक्रिया को अपनाकर उसे गतिशीलता प्रदान की गई है.
समय-समय पर न्यायपालिका कार्यपालिका में विवाद की स्थिति उत्पन्न होती रहती है यह विवाद प्राया इन के अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण संबंधी होते हैं एक और जहां कार्यपालिका समय की आवश्यकता का तर्क देते हुए संविधान में संशोधन की बात करती है वहीं दूसरी और न्यायपालिका ही ने संवैधानिक उपबंध के प्रतिकूल बताकर अमान्य घोषित कर देती है.
संविधान संशोधन की आवश्यकता क्यों?
संविधान की प्रसंगिकता को बनाए रखने के लिए समय के अनुसार उसमें संशोधन जरूरी होता है भारतीय संविधान में परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप उसे संशोधित और व्यवस्थित करने की व्यवस्था है भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का उपबंध दक्षिण अफ्रीका के संविधान से लिया गया है इसमें संशोधन की प्रक्रिया नाथू सिंह तुराज अमेरिका के संविधान की तरह कठोर है और ना ही ब्रिटेन के संविधान की तरह लचीली बल्कि भारतीय संविधान संशोधन की प्रक्रिया में कठोरता एवं लचीलापन का समन्वय है.
संविधान के भाग 22 के अंतर्गत अनुच्छेद 368 में संसद को संविधान एवं इसकी व्यवस्था में संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है जिसमें यह उल्लेखित है कि संसद अपनी संविधान शक्ति का प्रयोग करते हुए इस संविधान के उपबंध का परिवर्धन या परिवर्तन या निर्धन के रूप में संशोधन कर सकती है लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे की व्यवस्थाओं या बंधुओं को संशोधित नहीं कर सकती है.
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख है जो कि इस प्रकार है -
संविधान के संशोधन के किसी भी सदन मैं विधेयक पुनः स्थापित करके ही किया जा सकेगा लेकिन राज्य विधानमंडल में नहीं विधेयक को किसी मंत्री या या गैर सरकारी सदस्य द्वारा पुनः स्थापित किया जा सकता है इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती है विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है यह बहुमत 50% से अधिक सदन की कुल उपस्थित संख्या के आधार पर सदन में उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत या मतदान द्वारा होना चाहिए प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है दोनों सदनों के बीच असहमति होने पर दोनों सदनों के संयुक्त बैठक का प्रावधान इस विधेयक को पारित कराने के संबंध में नहीं है यदि विधेयक संविधान की संघीय व्यवस्था में संशोधन के मुद्दे पर हो तो इसे आधे राज्य के विधान मंडल से ही सामान्य बहुमत से पारित होना चाहिए यह बहुमत सदन में उपस्थित सदस्यों के बीच मतदान के तहत होत चाहिए संसद के दोनों सदनों के पास होने एवं राज्य विधान मंडलों के अनुमति के पास जहां आवश्यक राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिए भेजा जाता है राष्ट्रपति संशोधन विधेयक पर अनुमति देने के लिए होता है वह ना तो विधेयक को अपने पास रख सकता है और ना ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए सकता है राष्ट्रपति के अनुमति के बिना यह विधेयक 1 संविधान संशोधन अधिनियम जाता है और संविधान में अधिनियम के तहत इसका समावेश कर दिया जाता है..
संविधान संशोधन के प्रकार
संविधान के अनुच्छेद 368 में दो प्रकार के संशोधनों की चर्चा की गई है पहला संसद के विशेष बहुमत द्वारा तथा दूसरा आधे राज्यों द्वारा या साधारण बहुमत के माध्यम से अनुमोदन द्वारा लेकिन इसके अतिरिक्त संविधान के कुछ अन्य उपबंध संसद के साधारण बहुमत से ही संशोधित हो सकते हैं यह बहुमत प्रत्येक सदन में उपस्थित एवं मतदान द्वारा होता है यह उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के संशोधन के अनुच्छेद 368 के उद्देश्यों के अंतर्गत नहीं होते हैं इस प्रकार संविधान में तीन प्रकार के संशोधन होते हैं.
संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
संसद के विशेष बहुमत द्वारा बहुमत द्वारा संशोधन
संसद के विशेष बहुमत एवं आधे या उससे अधिक राज्यों के विधान मंडलों के अनुमोदन द्वारा
साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
बंधुओं में संशोधन केवल संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से किया जा सकता है इस श्रेणी के संशोधन में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते हैं इस रेडी के कुछ प्रमुख विषय निम्नलिखित है -
नए राज्यों का प्रवेश या गठन
जो का निर्माण और उसके क्षेत्र सीमा हो या संबंधित राज्यों के नामों का परिवर्तन
राज्य विधान परिषद का निर्माण या उसकी समाप्ति
दूसरी अनुसूची राष्ट्रपति राज्यपाल लोकसभा अध्यक्ष तथा न्यायाधीश आदि करिए परी लंबियां भत्ते तथा विशेषाधिकार आदि
संसद में गणपूर्ति
संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते
क्रिया नियम
संसद इसके सदस्यों और इसकी समितियों को विशेषाधिकार
संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र को ज्यादा महत्व प्रदान करना
राज भाषा का प्रयोग
नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति
एवं राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचन
पांचवी अनुसूची अनुसूचित क्षेत्र एवं अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन
छठी अनुसूची जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन केंद्र शासित प्रदेश
संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन
आदिकाल संबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है अर्थात प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत तथा प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो तिहाई बहुमत.
संसद के विदेश बहुमत की आवश्यकता विधेयक के तीसरे पठन चरण पर केवल मतदान के लिए आवश्यक होती है इस श्रेणी के विषय निम्नलिखित है -
मूल अधिकार
राज्य के नीति निर्देशक तत्व
वे सभी उपबंध जो प्रथम एवं प्रकृति श्रेणियों से संबंधित नहीं है
विशेष बहुमत एवं राज्यों की स्वीकृति दी द्वारा संशोधन
संघीय ढांचे से संबंधित संविधान के उप बंधुओं का संशोधन इस श्रेणी के अंतर्गत आता है इस प्रकार के संशोधन के लिए कम से कम आधे से अधिक राज्य विधान मंडलों में साधारण बहुमत के माध्यम से अनुमति मिलना आवश्यक है इसमें विधेयक को स्वीकृत देने के लिए राज्यों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है इस श्रेणी के विषय निम्नलिखित है -
राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया केंद्रीय कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार राज्य कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की अधिकारिता केंद्र एवं राज्यों के बीच विधाई शक्तियों का विभाजन सातवीं अनुसूची से संबंधित कोई भी संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया इसमें अनुच्छेद 369 का संशोधन भी सम्मिलित है.
मूल अधिकार एवं संविधान संशोधन
सर्वप्रथम शंकरी प्रसाद मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन की शक्ति में मूल अधिकार का संशोधन भी शामिल है लेकिन गोलकनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व के फैसले को पलटते हुए मूल अधिकार को श्रेष्ठ और प्रति रचित कहा है अतः संसद द्वारा किसी भी मूल अधिकार को नाथू न्यून किया जा सकता है और ना ही उसे समाप्त किया जा सकता है.
वर्ष 1973 में केसवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिए गए निर्णय को बदलते हुए कहा है कि संसद को मूल अधिकारों को कम या समाप्त करने का अधिकार है लेकिन संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के मूल ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती है इसका आशय यह है कि संसद संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बन चुके मूल अधिकारों को नाकाम कर सकती है और ना ही हटा सकती है.
हालांकि इसके बाद पुनः संसद में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा न्यायपालिका के सिद्धांत पर प्रतिक्रिया देते हुए घोषणा की गई कि संसद की फोर्स शक्तियों की कोई सीमा नहीं है और किसी भी संशोधन को मूल अधिकारों से जोड़ने के आधार पर किसी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता यद्यपि मिनर्वा मिल्स मामले 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस व्यवस्था को अवैध बताएं जिसमें संविधान के मूल ढांचे को न्यायिक समीक्षा से बाहर माना गया पुणे वामन राव मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मूल ढांचे की बात को दोहराया गया और स्पष्ट किया गया कि संवैधानिक संशोधन की विषय वस्तु 24 अप्रैल 1973 केसवानंद भारती मामले के फैसले के बाद से प्रभावी होगी
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